Tuesday 29 December 2020


ऊपर आक़ा और नीचे काका
रूपहले परदे का वह दौर था
 
हसीं जवाँ दिल धड़कानेवाले
राजेश का यहाँ पर राज था!

- मनोज 'मानस रूमानी'


अपने भारतीय रूमानी - सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना जी को ७८ वे जनमदिन पर सुमनांजलि!

- मनोज कुलकर्णी

नवाबी रुतबे के शानदार शख़्सियत थे वे..
उमराव जान से तहज़ीब से इश्क़ फरमाए वे

- मनोज 'मानस रूमानी'

अपने भारतीय सिनेमा के एक लाजवाब अदाकार.. फ़ारूख़ शेख़ इस जहाँ से रुख़सत होकर ७ साल हुएं

अपनी ख़ूबसूरत अदाकारा.. रेखा की उनके साथ 'उमराव जान' यादगार रही। 

नज़ाकत और नफ़ाज़त के लखनऊ में उनका शायराना अंदाज़ का इश्क़ चार दशक से दिलोदिमाग़ पर छाया हैं!

- मनोज कुलकर्णी

Friday 25 December 2020

'हम दोनों' (१९६१) फ़िल्म के उस गाने में साधना और देव आनंद!

"अभी न जाओ छोड़ कर..
कि दिल अभी भरा नहीं.."

हमारे रूमानी सिनेमा की - ख़ूबसूरत अदाकारा साधनाजी के स्मृतिदिन पर, उनके लिए कहा गया यह 'हम दोनों' इस लगभग साठ साल पुरानी - फ़िल्म का गाना आज उनके लिए ही याद आया।

जयदेवजी के संगीत में यह - गाया था..हमारे अज़ीज़ गायक मोहम्मद रफ़ीजी ने..जिन्होंने यह जहाँ छोड़कर अब चालीस साल हुएं।

यह लिखा था साहिर लुधियानवीजी ने, वो भी इस जहाँ से रुख़सत हुए अब चालीस साल हुएं।

सदाबहार अभिनेता देव आनंदजी ने अपनी इस फ़िल्म में दोहरी भूमिकाएं बख़ूबी निभायी थी।

देव आनंदजी के पुणे में हुए उस सेलिब्रेशन में
उनके साथ ज्योति व्यंकटेश और मैं!
इस संबंध में एक रंजक वाकया, जो हमने अनुभव किया वह याद आया..

१९९५ में देवसाहब ने अपने फ़िल्म कैरियर - (जो पुणे में शुरू हुआ था) के पचास साल यहाँ सेलिब्रेट किएं। तब हुई शानदार पार्टी में हम चुनिंदा फ़िल्म पत्रकारों के बीच वो बैठे। देर बाद जब वो जाने लगे, तो हमारे बंबई के दोस्त ने उनका वही गाना छेड़ा "अभी न जाओ छोड़ कर.."

देवसाहब गुज़र जाने को अब दस साल होंगे!

ख़ैर, फ़िल्म पत्रकारिता से ऐसी बहुत यादें है!!

- मनोज कुलकर्णी

"मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं..
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले.."

कहते है जब हमारे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयीजी (उनके विदेश मंत्री के दौर में) जब मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पाकिस्तान में मिले, तब फ़ैज़जी का यह शेर उन्होंने दोहराया।

खुद कवि रहे वाजपेयीजी के जनमदिन पर उन्हें आदरांजलि!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 24 December 2020

हुस्न को चाँद, जवानी को कँवल कहते हैं
उनकी सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं
ऐसा रूमानी हो या,
 
मेरे तसव्वुर के रास्तों में 
उभर के डूबी हज़ार आहटें..
न जाने शाम-ए-अलम से मिलकर 
कहाँ सवेरा पलट गया है
ऐसा दार्शनिक लिखनेवाले..

सरहद के दो तरफ़, दोनों मुल्कों में मक़बूल..शायर क़तील शिफ़ाई साहब का आज १०१ वा जनमदिन!

इस अवसर पर उन्हें सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Sunday 13 December 2020

बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा..७५!



'काला पत्थर' (१९७९) में शत्रुघ्न सिन्हा 

"अरे मेरे ताश के तिरपनवे पत्ते, तीसरे बादशाह हम हैं!"

यश चोपड़ा की फ़िल्म 'काला पत्थर' (१९७९) में बड़े जोश से सबको सुनानेवाला दमदार कलाकार था..शत्रुघ्न सिन्हा, जिसने इससे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के 'एंग्री यंग मैन' किरदार के सामने आव्हान खड़ा किया।

वह संवाद फ़िल्म में सीन के संदर्भ में था लेकिन दर्शकों को वाकई में लगा की अदाकारी का यह और एक बादशाह आया है!..'जानी' राजकुमार के बाद बुलंद डायलॉगबाजी करनेवाला!

'मेरे अपने' (१९७१) फ़िल्म में शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना!
अपनी दमदार अदाकारी और डायलॉग डिलीवरी का यह बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा पुणे के 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट' से एक्टिंग की बाकायदा ट्रेनिंग लेकर आया था। अमूमन हीरो जैसी शक्ल नहीं थी; लेकिन नज़र में करारीपन, बुलंद आवाज़ और चाल-ढाल में रुतबा इस वजह से वो असरदर था। बंबई में फ़िल्म इंडस्ट्री में उसका कैरियर शुरू हुआ देव आनंद की फ़िल्म 'प्रेम पुजारी' (१९७०) में निभाए छोटे रोल से!

'विश्वनाथ' (१९७८) में शत्रुघ्न सिन्हा
गुलज़ार की फ़िल्म 'मेरे अपने' (१९७१) में शत्रुघ्न सिन्हा असरदार अभिनेता के रूप में सामने आया। इसमें हैंडसम विनोद खन्ना के किरदार के साथ उसकी खुन्नस बहोत सराही गयी। इसमें "श्याम आये तो कह देना छेनू आया था!" कहते हुए उसका बेदरकार अंदाज़ कमाल का था। लेकिन बाद में उसके पास ज़्यादातर खलनायकी किरदार आएं। इसमें मनमोहन देसाई की 'रामपुर का लक्ष्मण' (१९७२) और सुल्तान अहमद की 'हीरा' (१९७३) जैसी फ़िल्में थी।

'धरम शत्रु' (१९८८) में रीना रॉय और शत्रुघ्न सिन्हा!
 
 
इसी वक़्त शत्रुघ्न सिन्हा अच्छे सपोर्टिव्ह रोल्स करने लगा। इसमें दुलाल गुहा की फ़िल्म 'दोस्त' (१९७४) में धर्मेंद्र के साथ उसने निभाया सहायक किरदार स्वाभाविक लगा। उसने इसमें अपने संवादशैली में गाया भी! फिर सही मायने में उसका कैरियर हीरो बनाकर सवारा उसका 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट' का साथी सुभाष घई ने, जो खुद एक्टिंग सीखकर आए थे लेकिन बाद में लेखन-निर्देशन में मुड़े। उनकी पहली फ़िल्म 'कालीचरण' (१९७६) में शत्रुघ्न ने परस्पर विरोधी दोहरी भूमिकाए बख़ूबी निभाई। इस सफल फ़िल्म के बाद दोनों का कॉम्बिनेशन 'विश्वनाथ' (१९७८) में भी हिट रहा। "जिस राख़ से बारूद बने उसे 'विश्वनाथ' कहते हैं!" यह उसका दमदार डायलॉग यादगार रहा।

'मिलाप' (१९७२) फ़िल्म से शत्रुघ्न सिन्हा की जोड़ी... ख़ूबसूरत रीना रॉय के साथ बनी और 'कालीचरण' (१९७६) से वह हिट हुई। बादमे उन्होंने 'विश्वनाथ', 'भूख़' (१९७८), 'मुकाबला', 'हीरा मोती', जानी दुश्मन' (१९७९), 'बेरहम', 'ज्वालामुखी' (१९८०), 'नसीब' (१९८१), 'दो उस्ताद', 'हथकड़ी' (१९८२) जैसी कामयाब फ़िल्में दी। कुल १६ फ़िल्में उन्होंने साथ की। उनके प्यार के चर्चे रहें, लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा ने शादी की पूनम चंदिरामानी से, जो 'सबक' (१९७३) इस एक ही फ़िल्म में उनकी नायिका रही थी। उसका रूमानी गाना "बरख़ा रानी ज़रा जम के बरसो.." मशहूर हुआ!"
सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा..बराबरी!

सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ सह- नायकवाली 'दोस्ताना', 'शान' (१९८०) जैसी फिल्मों में शत्रुघ्न सिन्हा बराबर रहें! मनोजकुमार की 'क्रांति' (१९८१) में उसका "करीम ख़ान बोल!" ऐसा फिरंगी को कहना दमदार रहा। 'मंगल पांडे' (१९८१) जैसी अकेले के दम पर हो या, 'तीसरी आँख' (१९८२), 'इल्ज़ाम' (१९८६), 'आग ही आग' (१९८७) जैसी मल्टी स्टार्रर फ़िल्में..वे अपनी अदाकारी से छा जाते थे।

मुख्य धारा के साथ कुछ समानांतर फिल्मों में भी शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने अभिनय का जलवा दिखाया। इसमें थी गौतम घोष की सामाजिक बंगाली फ़िल्म 'अंतर्जली जात्रा' (१९८७) और कुमार शाहनी की चेखोव की कहानी पर बनी 'क़स्बा' (१९९०); तो राम गोपाल वर्मा की पोलिटिकल थ्रिलर 'रक्त चरित्र' (२०१०) में उन्होंने फ़िल्म स्टार से बने नेता का किरदार किया। तब तक असल ज़िन्दगी में भी वे बिहार से राजनीती में आए थे!

'अंतर्जली जात्रा' (१९८७) में शत्रुघ्न सिन्हा!
शत्रुघ्न सिन्हा को 'आइफा' के 'आउटस्टैंडिंग कंट्रीब्यूशन टू इंडियन सिनेमा' अवार्ड से २०१४ में सम्मानित किया गया। पिछले साल वे 'कांग्रेस' में शामिल हुए और राजनीती तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रीय है।

हाल ही में उनका ७५ वा जनमदिन संपन्न हुआ!

उनकी "ख़ामोशs" यूँही गूँजती रहें!!
कन्या स्टार सोनाक्षी और पत्नी पूनमजी के साथ शत्रुघ्न सिन्हा!


उन्हें शुभकामनाएं!!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 8 December 2020

शर्मिला, हेमा और धर्मेंद्र..'देवदास'!

नहीं बनी फ़िल्म 'देवदास' के पोस्टर में हेमा मालिनी, धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोर!

अपने लोकप्रिय भारतीय सिनेमा के जानेमाने अदाकार धर्मेंद्र (८५) और शर्मिला टैगोर (७५+) इनकी आज सालगिरह!
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८) फ़िल्म में शर्मिला टैगोर और धर्मेंद्र!

ये दोनों 'अनुपमा' (१९६६), 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८), 'सत्यकाम', 'यक़ीन' (१९६९) और 'एक महल हो सपनों का' (१९७५) ऐसी लगभग आठ फिल्मों में साथ छा गएँ।

हालांकि धर्मेंद्र की रोमैंटिक हिट जोड़ी ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी के साथ रही और दोनों ने करीब ३० फ़िल्में साथ की। तो शर्मिला टैगोर की इंटेंस रोमैंटिक हिट जोड़ी पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ ही रही और दोनों ने लगभग ९ फ़िल्में साथ की।
 
फिर भी धरम-शर्मिला की जोड़ी कामयाब रही! इस जोड़ी की और दो फिल्में साथ हो सकती थी; लेकिन कुछ वजहों से हो न सकी। इसमें एक थी 'चैताली'..जो जानेमाने फ़िल्मकार बिमल रॉय बनानेवाले थे, पर वो गुज़र गए। बाद में, उनके सहायक रहे हृषिकेश मुख़र्जी ने वह १९७५ में बनायीं। लेकिन चाहते हुए भी वो धरम-शर्मिला से बना न सके और उसमे उन्हें सायरा बानू को लेना पड़ा!

नहीं बनी फ़िल्म 'देवदास' के सेट पर धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और गुलज़ार!
इनकी दूसरी फ़िल्म जो हो न सकी वह थी 'देवदास'! १९७६ में सृजनशील फ़िल्मकार - गुलज़ार ने शरतचंद्रजी की इस लोकप्रिय उपन्यास को अपनी दृष्टी से परदे पर लाना चाहा। उनकी लिखी पटकथा पर - कैलाश चोपड़ा निर्मित इस फ़िल्म का मुहूर्त भी हुआ था। इसमें उन्होंने कास्टिंग की थी धर्मेंद्र-देवदास, हेमा मालिनी-पारो, शर्मिला टैगोर-चंद्रमुखी! दरअसल, नृत्यकुशल हेमा चंद्रमुखी होनी चाहिए थी और संवेदनशील शर्मिला पारो!

आज यह सब याद आया!
ख़ैर, उनको मुबारक़बाद!!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 3 December 2020

मेरी हिंदी-उर्दू स्क्रिप्ट (सेक्युलर लव स्टोरी) के लोकेशन्स आग्रा, लखनऊ, दिल्ली है। 

देखते है यूपी की प्रस्तावित फिल्मसिटी और स्कीम्स से क्या सहयोग मिलता है।

- मनोज कुलकर्णी

सांस्कृतिक धरोहर के बिहार, मध्य, उत्तर आदी प्रदेशों में फिल्म कल्चर विकसित हो। 

वहां फ़िल्मों की निर्मिति बढ़कर समारोह होने चाहिएं।

- मनोज कुलकर्णी

फ़िल्म निर्माण के सृजनात्मक कार्य को पोषक मुक्त वातावरण जरुरी है। 

यूपी के केसरिया माहौल में फ़िल्म इंडस्ट्री के विकास की गुंजाइश नज़र नहीं आती!

- मनोज कुलकर्णी 

महाराष्ट्र, प. बंगाल और दक्षिण के राज्यों जैसा फिल्मोद्योग बिहार, मध्य, उत्तर आदी प्रदेशों में उभरने की आवश्यकता है।

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 2 December 2020

दरअसल यूपी में फिल्मसिटी की पहल अखिलेश यादव के सपा काल में हुई। 

मैं पहले से चाहता था, यूपी में यह होकर लखनऊ में फिल्म समारोह हो।

- मनोज कुलकर्णी 

यूपी में फिल्मसिटी होने से बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री पर कोई आँच नहीं आएगी। 

मैं तो चाहता हूँ वहां फिल्मोद्योग विकसित हो और लखनऊ में फिल्म समारोह भी हो।

- मनोज कुलकर्णी 

Tuesday 24 November 2020

मशहूर फ़िल्म लेखक सलीम ख़ान..८५!

बॉलीवुड के मशहूर लेखक सलीम ख़ान साहब!

अपने बॉलीवुड के मशहूर लेखक सलीम ख़ान साहब की आज ८५ वी सालगिरह!

'तीसरी मंज़िल' (१९६६) फ़िल्म के
गाने में ड्रम बजाते सलीम ख़ान!


हैंडसम सलीम ख़ान जी ने शुरूआती दौर में कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया। इसमें नासिर हुसैन की 'तीसरी मंज़िल' (१९६६) इस शम्मी कपूर हीरो वाली फ़िल्म में "ओ हसीना जुल्फों वाली.." गाने में वे ड्रम बजाते नज़र आए।

बाद में उन्होंने पटकथा लेखन पर तवज्जोह दिया और लेखक जावेद अख़्तर के साथ अपनी जोड़ी बनाई। फिर इन्होने कई हिट फ़िल्में दी और लेखकों को स्टेटस, ग्लैमर दिया। उन्होंने लिखी 'ज़ंजीर' (१९७३) इस प्रकाश मेहरा की फ़िल्म से अमिताभ बच्चन की 'एंग्री यंग मैन' की इमेज बनी और उसको सफलता मिली।

लेखक जोड़ीदार जावेद अख़्तर और सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ सलीम ख़ान!
 
उन्होंने लिखी रमेश सिप्पी की मल्टिस्टार्रर ब्लॉकबस्टर फ़िल्म 'शोले' (१९७५) तो माइलस्टोन हो गई। बाद में 'दीवार' (१९७५) और 'त्रिशूल' (१९७८) जैसी कई कामयाब फ़िल्में इस जोड़ी की कलम से आयी। अन्याय के विरूद्ध आँखों में अंगार लिए खड़ा रहनेवाला उनका नायक बहुत सफल रहा और अमिताभ बच्चन इससे सुपरस्टार हुए।

अपने बेटे हीरो सलमान ख़ान के साथ लेखक सलीम ख़ान!

कुछ साल बाद महेश भट्ट की फ़िल्म 'नाम' (१९८६) से सलीम ख़ान अलग से अकेले फ़िल्म लिखने लगे। संजय दत्त को एक नयी पहचान देने वाली यह फ़िल्म अच्छी चली और वे अपने इरादे में सफल हुए। बाद में.. अपने बेटे सलमान ख़ान हीरो वाली 'पत्थर के फूल' (१९९१) और 'मझधार' (१९९६) जैसी सफल फ़िल्मे उन्होंने ही लिखी।

सलीम ख़ान साहब को कुछ अवार्ड्स के साथ 'लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान' प्राप्त हुआ!

उन्हें सालगिरह मुबारक़!!


- मनोज कुलकर्णी

 

Thursday 19 November 2020


आप प्रियदर्शिनी थी
आप रणरागिनी थी
हमारे हिन्दोस्ताँ की
आन-बान-शान थी!

- मनोज 'मानस रूमानी'


हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा जी गाँधी को उनके १०३ वे जनमदिन पर सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Saturday 14 November 2020

इंसानियत, प्यार और तरक्की का
दिया दिखाया चाचा नेहरूजी ने..
बच्चों, चलों उनकी राह पर चलें
हमारे भारत को महान बनाये!"

- मनोज 'मानस रूमानी'

हमारे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू साहब को १३१ वे जनमदिन पर सलाम!
यह 'बाल दिन' के रूप में भी मनाया जाता हैं! तो बच्चों को प्यार भरी शुभकामनाएं!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Friday 13 November 2020

अंदाज़-ए-रफ़ी गातें..!

ख़ालिद बैग़.. मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में गाते!

सुखद बात का पता चला की अपने अज़ीज़ गायक मोहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ में गानेवाले पाकिस्तानी सिंगर है..ख़ालिद बैग़! हाल ही में यु ट्यूब पर उनके पर्फोर्मन्सेस के कुछ वीडिओज़ देखनें में आएं।

रफ़ीसाहब की आवाज़ में
गाए अपने अनवर हुसैन
!
हालांकि रफ़ी साहब फिर नहीं हो सकते। वो आसमान से अपनी आवाज़ लेकर आए थे! लेकिन उनकी आवाज़-गायकी के नज़दीक जाने की कुछ हद तक कामयाब कोशिश अपने हिन्दोस्ताँ में भी हुई है। वैसे यह तो फ़िल्मों में उनकी आवाज़ की कमी भरने की बात थी! 

जैसे की "मोहब्बत अब तिज़ारत बन गयी है.." ('अर्पण') गानेवाले अनवर हुसैन हो, या "मुबारक हो तुम सबको.." ('मर्द) गानेवाले शब्बीर कुमार; या फिर "तू मुझे कबूल.." ('खुदा गवाह') गानेवाले मोहम्मद अज़ीज़!

रफ़ीसाहब की आवाज़ में
गाए अपने शब्बीर कुमार!
ख़ैर, तो पाकिस्तान में भी यह कोशिश अच्छी रंग लायी लगा, जब ख़ालिद बैग़ जी ने गायें रफ़ीसाहब के कुछ गानें यहाँ यु ट्यूब पर सुनें! उनके फेसबुक पेज से मिली जानकारी के अनुसार उन्होंने संगीत की बाकायदा तालीम हासिल की है। 

२००६ में 'रॉयल कॉलेज ऑफ़ लंदन' से 'म्युज़िकोलोजी' में ख़ालिद बैग़ जी ने डिग्री प्राप्त की और २०१० में पाकिस्तान में ही संगीत शास्त्र में एम्.ए. किया। फिर उन्होंने वहां टेलीविज़न शोज में अपने गाने के परफॉर्मन्स सादर किए और बाद में विदेशों में भी वे प्रोग्राम्स करते रहे! 

रफ़ीसाहब की आवाज़ में गा कर
गए अपने मोहम्मद अज़ीज़!
यु ट्यूब पर 'आठवां सूर' विडिओ इंटरव्यू में ख़ालिद बैग़ जी ने बयां किया है की 'वे मोहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ से मुतासिर हुए और उस अंदाज़ में गाना पसंद किया'! "मैं रफ़ी साहब को ही गाता हूँ और उसी वजह से मेरी शोहरत है!" ऐसा भी उन्होंने इसमें कहाँ है। वैसे उन्होंने वहां इक़बाल जैसे मशहूर शायरों के कलाम भी गाएं है। वे यहाँ बम्बई आकर रफ़ी साहब के घर और क़ब्र पर भी गएँ!

पाकिस्तानी गायक ख़ालिद बैग़!
 

"तुम बिन जाऊ कहाँ के दुनियां में आके कुछ न फिर चाहा.." जैसे ख़ालिद बैग़ जी ने गाएं रफ़ी जी के गानों से ही उनकी इस आवाज़ से मोहब्बत बयां होती है!

रफ़ीसाहब को सलाम और बैग़जी को उनकी आवाज़ में गाने के लिए मुबारक़बाद!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 12 November 2020

जबरदस्त अदाकार अमजद ख़ान!

सत्यजीत राय की फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' (१९७७) में अमजद ख़ान!

"कितने आदमी थे.?"
डायलॉग सुनते ही सामने आता है 'शोले' का गब्बर सिंह याने अमजद ख़ान!

रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'शोले' (१९७५) में गब्बर अमजद ख़ान!
वही उसकी पहचान बनी! लेकिन वो एक जबरदस्त कलाकार था जिसने सिनेमा से पहले रंगमंच पर दमदार किरदार साकार किए थे।

भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज कलाकार जयंत जी का यह साहबजादा था। १९५७ में 'अब दिल्ली दूर नहीं' में बतौर बालकलाकार अमजद परदे पर दिखा। फिर १९७३ में चेतन आनंद की 'हिंदुस्तान की कसम' में वो निगेटिव रोल में था। उसने जानेमाने फ़िल्मकार के. आसिफ को उनकी आखरी फिल्म 'लव एंड गॉड' के लिए असिस्ट भी किया।

संजीव कुमार और रमेश सिप्पी के साथ 'शोले' (१९७५) की शूटिंग में अमजद ख़ान!
लेकिन अमजद ख़ान को सिनेमा में पहचान मिली रमेश सिप्पी की लीजेंडरी फ़िल्म 'शोले' (१९७५) से। इसके लेखक सलीम ख़ान ने उसे गब्बर सिंह के किरदार के लिए चुना।..और चम्बल का वह कुप्रसिद्ध लहज़ा पूरी तरह से उसने किरदार में दिखाया! इसमें संजीव कुमार जैसे मंजे हुए कलाकार के सामने उसका परफॉर्मन्स दमदार रहा!

'याराना' (१९८१) फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और अमजद ख़ान!
पहले के लीजेंड अजित जैसी पॉपुलैरिटी अमजद ख़ान ने हासिल की। बाद में सभी टॉप के नायकों के सामने वो ही विलन बनके आया। इसमें धर्मेंद्र ('चरस' में), अमिताभ बच्चन ('मुकद्दर का सिकंदर' में) और विनोद खन्ना ('इंकार' में) की कामयाब फ़िल्में थी। लेकिन बाद में उसने अपने किरदारों को अलग कुछ कॉमेडी अंदाज में ढाला, जैसे की फ़िरोज़ ख़ान की 'क़ुर्बानी' (१९८०) का इंस्पेक्टर और 'सत्ते पे सत्ता' (१९८२) का विलन! 'माँ कसम' (१९८५) के लिए तो उसे 'बेस्ट कॉमेडियन' का अवार्ड भी मिला!

कुछ अच्छे भले किरदार भी अमजद ख़ान ने साकार किए जैसे की १९८० में आयी 'हम से बढ़कर कौन' का भोलाराम और 'दादा' का इंटेंस रोल जिसके लिए उसने पुरस्कार जीता! बाद में 'याराना' (१९८१) में तो वो अमिताभ बच्चन का दिलदार दोस्त था। इसके लिए भी उसे अवार्ड भी मिला।

शशी कपूर की फ़िल्म 'उत्सव' (१९८४) में वात्सायन बने अमजद ख़ान!
दरमियान अमजद ख़ान के कुछ हटके किरदार निभाए। इसमें उसे चुना श्रेष्ठ फ़िल्मकार सत्यजीत राय ने 'शतरंज के खिलाड़ी' (१९७७) इस उनकी एकमात्र उर्दू फ़िल्म के लिए। इसमें नवाब वाजिद अली शाह का किरदार उसने बख़ूबी साकार किया। तो शशी कपूर की फ़िल्म 'उत्सव' (१९८४) में उसने 'कामसूत्र' लिखनेवाले वात्सायन की व्यक्तिरेखा की।

आख़िर दो फ़िल्में अमजद ख़ान ने निर्देशित भी की, इसमें 'अमीर आदमी, ग़रीब आदमी' (१९८५) कामयाब रही।..'एक्टर्स गिल्ड एसोसिएशन' के वे अध्यक्ष भी रहे!

दुर्भाग्य से बहोत जल्द वे इस दुनिया से रुख़सत हुए।  
आज उनका ८० वा जनमदिन..इसलिए यह याद!!

- मनोज कुलकर्णी


 

Monday 9 November 2020


"न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ!"

'लाल किला' (१९६०) फ़िल्म में यह नज़्म मोहम्मद रफ़ी साहब ने दर्दभरी आवाज़ में गायी थी!
इसे अब ६० साल हो गए। लेकिन जब भी सुनता हूँ आँखें नम होती है!

बहादुर शाह जफ़र साहब की कलम से आयी यह शायरी!
उन्हें यह जहाँ छोड़कर डेढ़सौ से ज्यादा साल हो गए!
परसो उनका स्मृतिदिन था!

उन्हें सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Sunday 8 November 2020

अमेरिका में भारतीय मूल की उपराष्ट्रपति होती है तो गर्व महसूस करते है!
यहाँ इटली मूल की भारतीय प्रधानमंत्री क्यूँ नहीं चलती थी?

- मनोज कुलकर्णी


ट्रम्प को शिकस्त देते अमेरिका के ४६ वे राष्ट्रपति हुए डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति बनी भारतीय मूल की कमला हैरिस का हार्दिक अभिनंदन!!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 5 November 2020

बी.आर.चोपड़ा और 'नया दौर'!

रंगीन 'नया दौर' के २००७ में प्रदर्शन समय बी.आर.चोपड़ाजी के साथ वैजयंतीमाला, रवि चोपड़ा और दिलीपकुमार!


अपने भारतीय सिनेमा के दिग्गज फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा जी का आज १२ वा स्मृतिदिन।

'बीआर फ़िल्म्स' के 'नया दौर' (१९५७) का पोस्टर!

इस वक्त याद आया उनका शायद आखरी बार कैमरा के सामने आना और वह था उनकी ही क्लासिक 'नया दौर' के रंगीन प्रदर्शन पर!

१९५७ में 'बीआर फ़िल्म्स' द्वारा मूल ब्लैक एंड व्हाइट में निर्माण हुई थी 'नया दौर'। मशीन युग में आदमी की अहमियत को उजाग़र करनेवाली इस फ़िल्म को लिखा था.. अख़्तर मिर्ज़ा और क़ामिल रशीद इन्होंने! गांव के गरीब टाँगेवालें और जमींदार की मोटर के बीच की रेस इसमें उल्लेखनीय रही। "झगड़ा सिर्फ मशीन और आदमी का है बस!" यह इसका तडफदार नायक दिलीप कुमार का संवाद अब भी याद हैं! अजित, जीवन, जॉनी वॉकर, चाँद उस्मानी और वैजयंतीमाला ने इसमें उसके साथ अहम भूमिकाएं निभाई थी।

'नया दौर' (१९५७) फ़िल्म के "मांग के साथ तुम्हारा.."
गाने में दिलीपकुमार और वैजयंतीमाला!

 


हालांकि, इस फ़िल्म में पहले मधुबाला ने बतौर नायिका काम शुरू किया था; लेकिन उसके वालिद अताउल्लाह ख़ान की वजह से उसे इसमें से बाहर आना पड़ा। कहा गया है की तब दिलीपकुमार-मधुबाला रिलेशनशिप में थे और यह बात ख़ान साहब को ग़वारा नहीं थी! तब चोपड़ाजी ने नायिका के रूप में लिया वैजयंतीमाला को, जिन्होंने पहले 'देवदास' (१९५५) फ़िल्म में दिलीपकुमार का अच्छा साथ दिया था। यह जोड़ी हिट हो गई और उनका गाना "मांग के साथ तुम्हारा.." आज भी लुभावना लगता है। 

'नया दौर' (१९५७) के "ये देश है वीर जवानों का.."
गाने में दिलीपकुमार और अजित!
साहिर लुधियानवी ने लिखें इसके गीत संगीतबद्ध किये थें ओ. पी. नय्यर ने, जिन्हें मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले ने गाया था। इसमें "उड़े जब जब जुल्फें तेरी.." जैसा रूमानी तो "ये देश है वीर जवानों का..",  "साथी हाथ बढ़ाना.." ये राष्ट्रप्रेम और सेवाकार्य को उत्तेजन देनेवालें गीत थें।

'नया दौर' फ़िल्म बहुत कामयाब रही और दिलीपकुमार को 'सर्वोत्कृष्ट अभिनेता' का पुरस्कार भी मिला। इसे पचास साल पुरे होने के समय २००७ में बी.आर. और पुत्र रवि चोपड़ा जी ने इसे रंगीन बनाकर प्रदर्शित किया।

चोपड़ाजी और उनकी इस लैंडमार्क फ़िल्म को आदरांजली!!

- मनोज कुलकर्णी

Saturday 31 October 2020

कोहीनूर मिलन!



"दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन.."
१९६० की फ़िल्म 'कोहीनूर' के इस रूमानी गीत की यह क्लासिक फ्रेम है।

यह गीत हमेशा मुझे रूपकात्मक लगता हैं। इसलिए की अपने भारतीय सिनेमा की श्रेष्ठ हस्तियों का यह मिलन हैं..

परदेपर साकार करनेवालें दिलीप कुमार और मीना कुमारी,
उनके लिए साथ गाएं मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर,
तथा शायर शकील बदायुनी और संगीतकार नौशाद अली!


इसको अब ६० साल हुएं; मगर दिलोदिमाग़ पर वैसे ही छाया हुआ हैं।

वाकई वह कोहीनूर मिलन था!

- मनोज कुलकर्णी

दूज के चाँद हुए वे!


दास्तान-ए-मोहब्बत...उर्दू शायर साहिर लुधियानवी और पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम!

'कभी कभी' फ़िल्म के शीर्षक गीत में अमिताभ बच्चन महाविद्यालीन जीवन में उभरते शायर के रूप में, राखी की तरफ़ देखकर ख़याल बयां करता हैं "तुझको बनाया गया है मेरे लिए.."

शायर साहिर लुधियानवी जी ने यह लिखा था और उसमें उनकी ही ऐसी प्रेम कहानी थी।
१९३९ के दौरान इस मोहब्बत का आगाज़ हुआ था (लाहौर-दिल्ली के बीच) प्रीत नगर में ही! तब एक ही कॉलेज में साहिर और कवयित्री अमृता कौर (प्रीतम) पढ़ रहें थे। एक शायराना माहौल में इन दोनों की आँखें मिली और उस ज़रिये प्यार बयां हो गया।

प्यार का जुनून लिए जवाँ..अमृता कौर (प्रीतम) और साहिर!

हालांकि अमृताजी साहिर से दो साल सीनियर थी और उनकी शादी (कम उम्र में ही) प्रीतम सिंह से हुई थी! लेकिन प्यार का जूनून दोनों में था। नतीजन साहिर को वह कॉलेज छोड़ना पड़ा। कुछ साल बाद (१९४४ के दरमियान) वे दोनों लाहौर में मिले। तब तक उर्दू शायरी में साहिरजी और पंजाबी साहित्य में अमृताजी अपना मक़ाम हासिल कर चुके थे!

 मुल्क़ विभाजन के बाद अमृताजी दिल्ली आई और साहिरजी बम्बई..जहाँ फ़िल्मों के लिए उन्हें गीतलेखन करना था। बाद में  ख़तों के जरिए शायराना अंदाज़ में इश्क़ बयां होता रहा। दरमियान अमृताजी शादी के बंधन से अलग हुई थी! लेकिन यहाँ साहिर फ़िल्म क्षेत्र में अपने काम में मसरूफ़ हुए थे।

उस दौरान गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ भी साहिर के प्यार के चर्चे हुए। लेकिन कहाँ गया की यह एकतरफ़ा था। बहरहाल, साहिरजी का सुधाजी ने गाया गीत "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ हैं तुमको..मेरी बात और हैं मैंने तो मोहब्बत की है.." सब साफ बयां कर देता है!..लेकिन अमृताजी इससे कुछ नाराज़ हुई थी और बाद में चित्रकार इमरोज से उनकी नज़दीकियाँ बढ़ी!

मोहब्बत के ख़ूबसूरत मोड़ पर..साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम!
कहते है साहिरजी ने कभी अमृताजी के साथ अपना प्यार खुल कर ज़ाहिर नहीं किया। हाँ, उनके गीतों में इसका ज़िक्र आता था। तो दूसरी तरफ़ अमृताजी ने उनके इश्क़ पर एक कहानी लिख कर सब बयां कर दिया था! लेकिन उसपर साहिरजी ने खास तवज्जोह नहीं दिया! तब उनकी कलम ज्यादा तर सियासी और सामाजिक मुद्दों पर चल रही थी। "हज़ारो ग़म है इस दुनिया में..मोहब्बत ही का ग़म तनहा नहीं.." ऐसा नग़्मा उन्होंने लिखा भी!

वैसे साहिरजी के जीवन के ऐसे नाजुक पल फ़िल्मों में अक्सर आतें रहें। संवेदनशील अभिनेता-निर्देशक गुरुदत्त ने बनायीं क्लासिक फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) के स्रोत साहिर ही थे। उसमें उस कवी की शायरी जिस नाम से प्रसिद्ध होती है वह 'परछाइयाँ' साहिरजी की ही है। बाद में जानेमाने निर्देशक बी.आर.चोपड़ा ने बनायीं फ़िल्म 'गुमराह' (१९६३) का गीत "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.." साहिरजी की दास्तान-ए-मोहब्बत ही बयां करता है!

ख़ैर, इसपर मुझे साहिरजी का ही 'दूज का चाँद' (१९६४) का "महफ़िल से उठ जाने वालो तुम लोगो पर क्या इलज़ाम.."  गाना उन दोनों पर याद आता हैं!
वाकई वे एक दूसरे के लिए दूज का चाँद हो गएँ!!


साहिरजी जल्द यह जहाँ छोड़ गए; तो उनसे मेरी मुलाकात हो नहीं पायी। लेकिन अमृताजी से मिलने का मौका मुझे मिला..जब हम 'जर्नलिज़्म कोर्स' के स्टूडेंट्स १९८८ में दिल्ली गए थे। तब उनसे हुई चर्चा में मैंने दृढ़ता से पूछा "साहिरजी ने "इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर.." नग़्मा क्या आपके लिए लिखा था?" उसपर तो सब चौंक गएँ; लेकिन उन्होंने खुलकर उसका जवाब दिया "हाँ, मैंने मेरी ऑटोबायोग्राफी 'रसीदी टिकट' में इस बारे में लिखा हैं!"

अमृताजी की जन्मशताब्दी पिछले साल हुई और साहिरजी का जन्मशताब्दी साल शुरू हुआ है!
दोनों को सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 28 October 2020

गुजरात के फेमस आर्टिस्ट्स ब्रदर्स नहीं रहें!

गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी!

गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी और उनके
बड़े भाई मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी गुज़र जाने के समाचार दुखद हैं!

मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी!
पॉपुलर गुजराती सिनेमा में बड़ी लोकप्रियता नरेश कनोडिया जी ने हासिल की थी। कुल पाँच दशक वे वहां परदे पर छायें रहें। उनकी हिट फिल्मों में 'जोग संजोग', 'लाजु लखन', 'ढोला मारु', 'राजवीर' आदी शामिल हैं। उन्हें बम्बई के 'दादासाहेब फालके अकादमी अवार्ड' से सम्मानित भी किया गया था!

तो महेशकुमार कनोडिया जी के संगीत प्रोग्रामस बड़े हिट हुआ करतें थे। इसमें वे दोनों आवाजों में लाजवाब गातें थे! इसके अलावा उन्होंने गुजराती फिल्मों के लिए संगीत भी दिया। इसमें 'जिगर एंड एमी', 'तानारीरी' जैसी फिल्मों के लिए उन्हें अवार्ड्स भी मिलें!

नरेश कनोडिया फिल्म में!


इन दो भाईयों का दो दिनों में आगे-पीछे जाना उनमे रहे गहरे प्यार की अनुभूति देता हैं!

इन दोनों को सुमनांजली!!

- मनोज कुलकर्णी

Sunday 25 October 2020


"हम ग़मज़दा हैं..लाएं कहाँ से खुशी के गीत
देंगे वोही..जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम..!"

ऐसा अंदाज़-ए-बयाँ था यथार्थवादी शायर साहिर लुधियानवी जी का!

उनको ४० वे स्मृतिदिन पर सुमनांजली!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 20 October 2020

जब रफ़ी साहब से मिले ग़ुलाम अली!


"रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ.."

'ग़ज़ल' (१९६४) फ़िल्म में यह शायराना माहौल में गाकर दिल को छू गए थे मोहम्मद रफ़ी!

अपने भारत के ये मधुर आवाज़ के बेताज बादशाह से पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकी के उस्ताद ग़ुलाम अली जी की मुलाकात की यह तस्वीर!

"दिल में एक लेहेर सी उठी है अभी.." ऐसी ग़ज़लें रूमानी अंदाज़ में गाकर मशहूर हुए ग़ुलाम अली मई-जून १९८० के दरमियान बम्बई में थे। तब रफ़ी साहब ने खुद उन्हें फोन करके मिलने को कहा। इससे रोमांचित हुए ग़ुलाम अली उन्हें मिलने पहुँचे। वहां रफ़ी जी ने उनकी अच्छी मेहमान नवाज़ी की। उस दौरान ग़ुलाम अली जी ने उन्हें कहाँ, "आपको पूरी दुनिया सुनती है और हम तो आपके चाहनेवाले हैं!" उसपर रफ़ी जी ने उन्हें कहाँ, "लेकिन मैं आपको सुनता हूँ!"

इस बात का ज़िक्र ग़ुलाम अली जी ने एक मुलाक़ात में किया था। बाद में उन्होंने अपने भारतीय सिनेमा के लिए भी गाया, जिसकी शुरुआत हुई बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म 'निक़ाह' (१९८२) से। इसकी उनकी "चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद हैं.." यह ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई।

ग़ुलाम अली जी ने तब बताया की रफ़ी जी की गायी "दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ.." ग़ज़ल उन्हें बहुत पसंद है।
मिर्ज़ा ग़ालिब जी की यह ग़ज़ल ख़य्याम साहब ने राग पुरिया धनश्री में संगीतबद्ध की थी। यह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़ल रफ़ी जी की दर्दभरी आवाज़ की ऊंची अनुभूति देती हैं!

ग़ुलाम अली जी ख़ुशक़िस्मत थे जो उनका रफ़ी जी से मिलना हुआ। उसी साल कुछ दिन बाद जुलाई में रफ़ी साहब इस दुनिया से रुख़सत हुए!
अब चालीस साल गुज़र गये है!

अलग अंदाज़ में गानेवाले ये दोनों हमारे अज़ीज़!!

- मनोज कुलकर्णी