Thursday 10 May 2018

"मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता.."

कह कर यह जहाँ छोड़ गए शायर कैफ़ी आज़मी साहब को उनके स्मृतिदिन पर सलाम!

 
- मनोज कुलकर्णी
['चित्रसृष्टी', पुणे]


Wednesday 9 May 2018

विशेष लेख:


मख़मली कोमल आवाज़ के..तलत महमूद!


- मनोज कुलकर्णी



"दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या हैं..
आखिर इस दर्द की दवां क्या हैं..?"
'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) में "दिल-ए-नादाँ." पेश किया भारत भूषण और सुरैय्याने!
'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) इस राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त फ़िल्म के लिए उनकीही रूमानी शायरी (सुरैय्या के साथ) गाकर मोहब्बत का दर्द बख़ूबी बयां किया था..तलत महमूद जी ने!..जब भी मैं यह सुनता हूँ प्यार भरा दिल उस शायराना माहौल में पहूँच जाता है!

आज तलत साहब का २० वा स्मृतिदिन! याद आ रहीं है लखनवी अदब के इस शानदार शख़्सियत से बहोत साल पहले उनके एक संगीत जलसे के दौरान हुई मेरी मुलाकात!
नौजवान गायक तलत महमूद.

शास्त्रीय संगीत का बाक़ायदा प्रशिक्षण लेकर महज १६ साल की उम्र में तलत ने दाग देहलवी, मिर, जिगर ऐसे मँजे हुए शायरों के कलाम 'ऑल इंडिया रेडिओ', लखनऊ पर गाना शुरू किया! उस कोमल रेशमी आवाज़ को पहचानते हुए 'एच.एम्.व्ही.' ने १९४१ में उसकी डिस्क बनायी!

उस्ताद बरक़त अली खां साहब और कुंदनलाल सैगल के उस दौर में..ग़ज़ल को अपनी पहचान बनाने तलत कलकत्ता आए। कुछ काल उन्होंने 'न्यू थिएटर' के संगीत क्षेत्र में काम भी किया! १९४४ के दरमियाँ उन्होंने वहां कमल दासगुप्ता के संगीत निर्देशन में गायी फ़ैयाज़ हाश्मी की "तसवीर तेरी दिल मेरा बेहेला न सकेगी.." ग़ज़ल मशहूर हो गयी! उसी दौरान उन्होंने कुछ बांग्ला गाने भी गाए और अच्छी सूरत होने के कारन परदे पर भी आए..इसमें 'राजलक्ष्मी' (१९४५) और 'तुम और मैं' (१९४७) इन फिल्मों में ख़ूबसूरत काननबाला के नायक भी बने!
गायक तलत महमूद और संगीतकार अनिल बिस्वास.


१९४९ में तलत बम्बई आए..तब संगीतकार अनिल बिस्वास ने उनके हुनर को परखा..और शाहीद लतीफ़ की फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल.." यह मज़रूह सुल्तानपुरी का लिखा गाना उनसे गवाया.. जो मँजे हुए अदाकार दिलीपकुमार पर फ़िल्माया गया! अभिजात अभिनय और पार्श्वगायन का यह अनोखा संयोग दर्शकों को बहोत भाया! इसके सफलता के बाद १९५० का पूरा दशक जैसे तलत की मखमली आवाज़ से छाया रहा!..सज्जाद हुसैन, नौशाद, सी. रामचंद्र, मदनमोहन और सचिन देब बर्मन जैसे जानेमाने संगीतकारों ने उनसे गाने गवाएं!
वारीस' (१९५४) फ़िल्म के "राहीं मतवाले.." गाने में  
गायक-कलाकार तलत महमूद और सुरैय्या!


पार्श्वगायन के क्षेत्र में सफलता हासिल करते हुए तलत में अभिनेता बनने की ललक भी प्रबल थी और सैगल की तरह वह गायक-अभिनेता बनना चाहते थे! उनकी इस चाह से १९५३ में कारदार की 'दिल-ए-नादान' फ़िल्म में श्यामा के वह नायक बने..और बाद में एक सुरेला संगम रूपहले परदे पर आया फिल्म 'वारीस' (१९५४) से, जिसमे ख़ूबसूरत गायिका-अभिनेत्री सुरैय्या के वह नायक हुए..इसमें "राहीं मतवाले तू छेड़ एक बार मन का सितार.." इस रूमानी गाने में यह सुरेली साथ दर्शकों को भायी! बाद में वह बड़ी अभिनेत्रियों के भी नायक बने जैसे 'एक गांव की कहानी' (१९५७) में माला सिन्हा के! लेकिन साधारण रही इन फिल्मों के सिर्फ गाने लोकप्रिय हुए..मिसाल की तौर पर 'सोने की चिड़ियाँ' (१९५८) में नायिका नूतन ने उनके साथ ख़ूबसूरती से पेश किया "सच बता तू मुझ पे फ़िदा.."

'सोने की चिड़ियाँ' (१९५८) फ़िल्म के "सच बता तू मुझ पे फ़िदा.."
  गाने में गायक-अभिनेता तलत महमूद और नूतन! 


मख़मली आवाज़ के तलत सही मायने में आधुनिक सेमि-क्लासिकल और नॉन-क्लासिकल (फ़िल्मी) ग़ज़ल के निर्माता थे! यह सुने..एक तरफ हैं "मै दिल हूँ एक अरमाँ भरा.." ('अनहोनी'/१९५२), "शाम-ए-ग़म की कसम.." ('फुटपाथ'/१९५३), "जलते है जिसके लिए.." ('सुजाता'/१९५९) और "मै तेरी नज़र का सुरूर हूँ.." ('जहाँ आरा'/१९६४); तो दूसरी तरफ हैं "अंधे जहाँ के अंधे रास्तें.." (;पतिता'/१९५३), "बेचैन नज़र बेताब जिग़र.." ('यास्मिन'/१९५५), "अहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए.." ('उसने कहाँ था'/१९६०) और "इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा.." ('छाया'/१९६१).
श्रेष्ठ कलाकार..अभिनेता दिलीप कुमार और गायक-अभिनेता तलत महमूद!

संगीत के बदलते दौर में वाद्यों के आवाज़ तलत जी जैसे अभिजात गायकों की प्रतिभा पर हावी हो गए!..१९९२ में उन्हें 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया।..और १९९८ में वह जहाँ छोड़ कर चले गए!

तलत साहब ने गाया था..
"मेरी याद में तुम ना आसूँ बहाना.." 
लेकिन हम उन्हीं के गीत से कहते हैं..
"तेरा ख़याल दिल से मिटाया नहीं अभी."

उन्हे मेरी सुमनांजली!!

- मनोज कुलकर्णी
['चित्रसृष्टी', पुणे]
















Saturday 5 May 2018

 
"शम्मा रह जाएगी...
परवाना चला जायेगा.."


मौसिकी के शहेनशाह नौशाद साहब का आज १२ वा स्मृतिदिन!


उनसे हुई मुलाक़ात की 'अनमोल घड़ी' याद आ रहीं हैं..!

उन्हें सलाम!!


- मनोज कुलकर्णी
 ['चित्रसृष्टी', पुणे]





< नौशाद साहब के संगीत में.. 
   गाते मोहम्मद रफ़ी साहब!

Friday 4 May 2018


एक्सक्लूजिव्ह!


भारतीय सिनेमा के उन प्रवर्तकों को न भूलें!


- मनोज कुलकर्णी

दादासाहब फालके जी ने बनायी भारतीय फ़ीचर फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' (१९१३) का महत्वपूर्ण दृश्य!

१०५ साल हो गए उस ऐतिहासिक घटना को..३ मई, १९१३ को दादासाहब फालके जी ने बनायी पहली भारतीय फ़ीचर फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' आम जनता के लिए बम्बई के 'कोरोनेशन सिनेमा' में प्रदर्शित हुई थी! लेकिन इससे पहले भी भारत में फ़िल्म बनाने की सफल-असफल कोशिशें हुई!
१८९४-९५ के दरमियाँन होनेवाला 'शाम्ब्रिक  खारोलिका '.. 'मैजिक लैंटर्न शो'! 

'शाम्ब्रिक खारोलिका '(मैजिक लैंटर्न'). 












सबसे पहले १८९४-९५ के दरमियाँन 'शाम्ब्रिक खारोलिका '(मैजिक लैंटर्न') नाम का इस सदृश चलचित्र का आभास दिलाने वाला खेल कल्याण के महादेव गोपाल पटवर्धन और उनके पुत्रो ने शुरू किया था।
हरिश्चन्द्र भाटवडेकर तथा सावे दादा!


फिर १८९६ में 'लुमीए शो' से प्रेरणा लेकर बम्बई में मूल रूप से छायाचित्रकार रहे हरिश्चन्द्र सखाराम भाटवडेकर तथा सावे दादा ने 'दी रेस्लर्स ' और 'मैन एंड मंकी ' जैसे लघुपट १८९९ में बनाएं। किसी भारतीय ने चित्रपट निर्मिती करने का वह पहला प्रयास था!
'रॉयल बॉयोस्कोप' के हीरालाल सेन और उन्होंने बनायी डॉक्यूमेंटरी 'स्वदेशी मूवमेंट'!


इसके बाद कोलकत्ता में 'रॉयल बॉयोस्कोप' के हीरालाल सेन और उनके बन्धुओने कुछ बंगाली नाटक और नृत्य के दृश्य चित्रित करके फ़रवरी, १९०१ के दरमियाँन वह परदे पर दिखाएं! 


आगे १९०५ तक कोलकत्ता में जे. एफ. मदान इन्होने इस तरहकी चित्रनिर्मिती शुरू की! नाटयसृष्टी से आए हुए मदान ने 'ग्रेट बंगाल पार्टीशन मूवमेंट' जैसे लघुपट निर्माण किएं। इन्हे वो 'स्वदेशी ' कहा करते थे!

जे. एफ. मदान.
इसके बाद ऐसा प्रयास करने वाली व्यक्ति थी श्रीनाथ पाटनकर..उन्होंने १९१२ में 'सावित्री' यह कथा चित्रपट किया तो था...लेकिन उसके निर्मिती प्रक्रिया (प्रोसेसिंग) में समस्याए पैदा हुई और उसकी प्रिंट पूरी तरह से ब्लेंक आ गयी!

१९१२ में ही रामचन्द्र गोपाल तथा दादासाहेब तोरने...इन्होने 'पुंडलिक' यह अपना कथा चित्रपट सफलतासे पूरा किया!...लेकिन वह भारत का पहला कथा चित्रपट नहीं माना गया। इसकी वजहें नमूद की गयी की..वह नाटक का चित्रीकरण था, उसके लिए विदेसी छायाचित्रकार का सहयोग लिया गया..और इसकी प्रक्रिया लन्दन में करायी गयी!..हालांकि इसकी प्रिंट भी उपलब्ध नहीं!
दादासाहेब तोरने और १९१२ में प्रदर्शित उनकी फिल्म 'पुंडलिक' की जाहिरात!

इसी दौरान नाशिक के दादासाहब फालके ने फ़िल्म निर्माण का जैसे ध्यास लिया, जिसे उनकी पत्नि ने भी सक्रिय साथ दिया!..और 'बीज से उगता पौदा' इस लघुपट से शुरू करके १९१३ में 'राजा हरिश्चन्द्र' यह भारत का पहला कथा चित्रपट तैयार करने तक उन्होंने बडा यश संपादन किया! इसका अब बड़ी फिल्म इंडस्ट्री के रूप में वृक्ष हुआ हैं!
पत्नि सरस्वतीबाई के साथ उम्र के आखरी पड़ाव में दादासाहब फालके!
लेकिन मेरा कहना है की भारत में छोटी फिल्म से यह मीडियम लाने का काम (भाटवडेकर) सावे दादा जी ने पहले किया...फिर हीरालाल सेन और मदान इन्होनें कुछ लघुपट (नॉन फ़ीचर कह सकते हैं) बनाकर इसमें अपना योगदान दिया!.और दादासाहब फालके ने पहला कथा चित्रपट (फ़ीचर फ़िल्म) तैय्यार किया!..तो इन सब हस्तियों को भारतीय सिनेमा के जनक में शामिल करना चाहिएं!



भारतीय सिनेमा के इन प्रवर्तकों को मानवंदना!!

- मनोज कुलकर्णी
['चित्रसृष्टी', पुणे]