Wednesday 31 March 2021


हिंदुस्तानी औरत की आवाज़-ए-दर्द थी आप
हिंदुस्तानी सिनेमा की महज़बीन ही थी आप


- मनोज 'मानस रूमानी'


अपने भारतीय सिनेमा की ट्रैजडी क्वीन मीना कुमारी जी को स्मृतिदिन पर सुमनांजली!!

- मनोज कुलकर्णी


Sunday 28 March 2021

होली के रंग बिखेरती पहली कलर फ़िल्म 'आन'!


पहली भारतीय टेक्नीकलर मूवी 'आन' (१९५२) के गीतदृश्य में दिलीप कुमार और निम्मी।

होली के रंग अपने सिनेमा में ख़ूब दिखें। इसकी शुरुआत ही अपनी पहली भारतीय ('सैरंध्री' के बाद) कलर मूवी 'आन' से हुई।
टेक्नीकलर मूवी 'आन' (१९५२) के जानेमाने फ़िल्मकार महबूब ख़ान!

हमारे जानेमाने फ़िल्मकार महबूब ख़ान द्वारा निर्मित और निर्देशित यह फ़िल्म १९५२ में प्रदर्शित हुई। महल की मग़रूर शहजादी और गांव का साहसी युवक के इर्दगिर्द वाली, आर. एस. चौधरी की इस कहानी पर एस. अली रज़ा ने लिखी यह कॉश्चुम ड्रामा फ़िल्म थी।

सिनेमैटोग्राफर फरदून ए. ईरानी ने बख़ूबी चित्रित की इस फ़िल्म को शमसुद्दीन कादरी ने एडिट किया था। हालांकि, पहले इसे १६ मि.मी. गेवाकलर में शूट किया गया और 
बाद में टेक्नीकलर में ब्लोअप!

टेक्नीकलर 'आन' (१९५२) के पोस्टरपर दिलीप कुमार, प्रेमनाथ और नादिरा!
अपनी इस पहली रंगीन फ़िल्म के नायक थे लाजवाब दिलीप कुमार और उनके सामने नादिरा, प्रेमनाथ तथा साथ में निम्मी थी। शकील बदायुनी ने इसके गीत लिखें थे और नौशाद अली ने उत्तर के लोक संगीत में इसे ढाला था! इसमें मोहम्मद रफ़ी ने गाएं "मान मेरा एहसान.." और लता मंगेशकर ने गाए.. "आज मेरे मन में सखी.." जैसे लोकप्रिय गानों के साथ "खेलो रंग हमारे संग.." यह गाँव की होली का रंगीन गीत भी था। 

उस समय की यह सबसे महंगी फ़िल्म थी और बड़ी कामयाब रही। लगभग १७ भाषाओं में..
उपशीर्षकों के साथ इसे बाहर कुल २८ देशों में दिखाया गया।

परसो इसकी अभिनेत्री निम्मी जी का पहला स्मृतिदिन था!
 
और इस फ़िल्म को अब ७० साल होने को आएं!

 
मानवंदना!!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 23 March 2021

संवेदनशील लेखक-फ़िल्मकार सागर सरहदी!



सागर सरहदी की 'बाज़ार' (१९८२) के "देख लो आज हमको.." गाने में सुप्रिया पाठक और फ़ारूक़ शेख़!
"देख लो आज हमको जी भरके
कोई आता नहीं है फिर मरके."

शादी का जोड़ा पहन के अपने महबूब को मिलने आयी ब्याही जा रही (नहीं बेचीं जा रही) जवान लड़की की यह कैफ़ियत
मिर्ज़ा शौक़ की क़लम से उतरी और ख़य्याम की मौसिक़ी में जगजीत कौर की दर्दभरी आवाज़ में बयां हुई..
परदे पर फ़ारूक़ शेख़ के सामने बड़ी संजीदगी से साकार किया था सुप्रिया पाठक ने।

फ़िल्म थी समकालिन वास्तव दर्शाती 'बाज़ार' (१९८२) और इसके यथार्थवादी निर्देशक थे सागर सरहदी!
आज वो इस जहाँ से रुख़सत होने की ख़बर के बाद, मेरी नम आँखों के सामने उनकी इस असरदार सामाजिक फ़िल्म का यह दृश्य आया।
बासु भट्टाचार्य की फिल्म 'अनुभव' (१९७१) में संजीव कुमार और तनुजा!

अब्बोत्ताबाद (अब पाकिस्तान में) के बफ़ा गांव में १९३३ में जन्मे उनका असल में नाम था गंगा सागर तलवार! बटवारे के बाद वे दिल्ली आए और आगे उर्दू में लघु कथा लिखने लगे। बाद में रंगमंच की तरफ मुड़ते हुए यह सागर सरहदी 'इप्टा' से जुड़ गए। 

फिर सिनेमा की तरफ उनका रुझान हुआ और वे बम्बई आकर फ़िल्में लिखने लगे। १९७१ में विख्यात निर्देशक बासु भट्टाचार्य की पति-पत्नी संबंधों पर, संजीव कुमार-तनुजा की बेहतरीन अदाकारी वाली 'अनुभव' इस फिल्म के संवाद उन्होंने लिखें। इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला!

लेखक सागर सरहदी जी का सम्मान करते अपने बॉलीवुड के रूमानी फ़िल्मकार यश चोपड़ा!
फिर अपने लोकप्रिय रूमानी फ़िल्मकार यश चोपड़ा ने १९७६ में अपनी फ़िल्म 'कभी कभी' की पटकथा लिखने के लिए उन्हें बुलाया। यशजी की त्रिकोणीय प्रेमकथा पर फ़िल्मों के चलते (उनकी पत्नी पामेला चोपड़ा ने लिखी) प्यार खोए शायर और उसके इर्दगिर्द आगे बढ़ती  हुई यह कहानी थी। सुपरस्टार अमिताभ बचन, शशी कपूर और राखी की अदाकारी की इस फ़िल्म को सागर सरहदी ने बख़ूबी पटकथा में उतारा! इसके संवाद के लिए उन्हें 'फिल्म फेयर अवार्ड' मिला! बाद में यशजी की ज़्यादातर उसी फार्मूला पर फ़िल्मे वे लिखते गए। इस में अहम रही अमिताभ-जया बच्चन और रेखा इस उस ज़माने में सेन्सिटिव्ह रही (रियल) त्रिकोणीय प्रेम पर यशजी ने खुद निर्देशित की 'सिलसिला' (१९८१), जिसकी पटकथा उनके साथ सरहदी जी ने लिखी! फिर ऋषि कपूर और विनोद खन्ना के साथ श्रीदेवी की मशहूर 'चाँदनी' (१९८९) के संवाद उन्होंने लिखें। इसे 'सर्वोत्कृष्ट लोकप्रिय फ़िल्म' का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला!

यश चोपड़ा की फ़िल्म 'सिलसिला' (१९८१) में रेखा, अमिताभ और जया बच्चन!
इसके आलावा यशजी निर्मित, दूसरे निर्देशकों की फ़िल्में भी सरहदी जी ने लिखीं। जैसी की राखी, नीतू सिंह और ऋषि कपूर अभिनीत 'दूसरा आदमी' (१९७७) जो रमेश तलवार ने बनायी थी। फिर कश्मीर की वादियों में बनी फ़ारूक़ शेख़ के साथ पूनम ढिल्लों की 'नूऱी' (१९७९) संवेदनशील कलाकार मनमोहन कृष्ण ने निर्देशित की थी। इससे अलग जॉनर की दूसरे निर्देशकों की फ़िल्में भी उन्होंने लिखी जैसे की राम माहेश्वरी की 'कर्मयोगी' (१९७८) जिसमे 'जानी' राज कुमार दोहरी भूमिका में थे और उनके संवाद सरहदी जी ने लिखें थे। बाद में ख़ूबसूरत दिव्या भारती की ऋषि कपूर और शाहरुख़ ख़ान के साथ 'दीवाना' (१९९२) के और हृतिक रोशन की पहली हिट 'कहो ना प्यार है' (२०००) के संवाद उन्हीके थे।
'बाज़ार' (१९८२) के दरमियान सागर सरहदी और अभिनेत्री स्मिता पाटील!

दरमियान, १९८२ में सागर सरहदी जी ने अपने यथार्थवाद को लेकर 'बाजार' यह मुस्लिम सोशल फ़िल्म निर्देशित की।..और समाज में गरीब लड़कियों का शादी के नाम पर (अरबों से) कैसा व्यापार होता है इस गंभीर समस्या को दर्शाया! शुरू में उल्लेखित जैसे जानेमाने शायरों के अर्थपूर्ण नग्में इसमें थे, जैसे की बशर नवाज़ और मख़दूम मोहिउद्दीन के। उसमें तलत अज़ीज़ और लता मंगेशकर जी ने गायी "फिर छिड़ी रात बात बात फूलों की.." यह नज़्म और फ़ारूक़ शेख़-सुप्रिया पाठक की उस पर रूमानी अदाकारी मुझे बहुत भाती है।  इसके लिए सुप्रिया पाठक को 'सर्वोत्कृष्ट सहायक अभिनेत्री' का 'फिल्म फेयर अवार्ड' मिला आख़िर २०१८ में, उन्होंने खुद लिखी और निर्देशित की समकालिन सामाजिक विषय पर बनी फ़िल्म 'चौसर' प्रदर्शित हुई!

बहरहाल, इस कमर्शियल इंडस्ट्री में अपनी स्वतंत्र यथार्थवादी दृष्टी से सागर सरहदी जी इतनी फ़िल्में बना नहीं सके। फिर भी जो चंद उन्होंने बनायीं वह समानांतर सिनेमा को नया आयाम देनेवाली और सराहनीय रहीं।

उनको मेरा सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

Sunday 21 March 2021



सभी के पाक़ दिन, महफ़िल में गूँजतें
मज़हब से परे हैं सुर उनके शहनाई के

- मनोज 'मानस रूमानी'

 
शहनाई नवाज़ 'भारतरत्न' बिस्मिल्लाह ख़ान जी को १०५ वे जनमदिन पर सलाम!

- मनोज कुलकर्णी

Saturday 20 March 2021

 'जिव्हाळा'!

'देवबाप्पा' (१९५३) और 'छोटा जवान' (१९६३) जैसी पारिवारिक और आदर्श मराठी फिल्में बनानेवाले.. दिग्गज फ़िल्मकार राम गबाले जी का जनमदिन और मेरी सालगिरह आज २० मार्च को ही!

यह तस्वीर है मेरे 'चित्रसृष्टी' प्रथम विशेषांक, २००२ के समारोह में मैंने उन्हें सम्मानित किया तब की!

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 17 March 2021

याद..संगीतकार गुलाम मोहम्मद जी की!


'पाकीज़ा' (१९७१) के "मौसम है आशिकाना" गाने में मीना कुमारी!
"मौसम है आशिकाना
ऐ दिल कहीं से उनको
ऐसे में ढूंढ लाना.."

मेरे पसंदीदा रूमानी गानों में से एक..
 ५० सालकी देहलीज़ पर फ़िल्म 'पाकीज़ा' का
लता मंगेशकर जी ने बेहतरीन गाया हुआ और मीना कुमारी ने उसी जज़्बे के साथ साकार किया हुआ।
इसे अपने लाजवाब संगीत से सजानेवाले गुलाम मोहम्मद जी की यह आख़री मास्टर कम्पोज़िशन..आज उनका स्मृतिदिन!

बीकानेर के संगीत घराने में पैदा हुए गुलाम मोहम्मद का १९३२ के दौरान फ़िल्म संगीत में प्रवेश हुआ.. 'सरोज मूवीटोन' की 'राजा भर्थारी' से..(अपने वालिद की तरह) बतौर तबला वादक! बाद में बम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री में वे १५ साल मशहूर संगीतकार नौशाद अली और अनिल बिस्वास के सहाय्यक रहे।
'दिल-ए-नादान' (१९५३) के पोस्टर में तलत महमूद, श्यामा और पीस कँवल!

ग़ौरतलब, १९४७ में गुलाम मोहम्मद स्वतंत्र रूप से संगीत देने लगे..वह फ़िल्म थी 'टाइगर क्वीन'! फिर 'गृहस्थी' (१९४८) और 'दिल की बस्ती (१९४९) जैसी फ़िल्में उनके संगीत में ढलने लगी। शुरू में शकील बदायुनी जी के गीत उन्होंने संगीतबद्ध किएं। जिसमें 'पारस' (१९४९) का मोहम्मद रफ़ी और शमशाद - बेग़म ने गाया "मोहब्बत में किसे मालूम था." और मलिका-ए-हुस्न मधुबाला अभिनीत..
एम्. सादिक़ की 'परदेसी' (१९५०) का लता मंगेशकर ने गाया "जिया लागे नहीं मोरा.." और नर्गिस-राज कपूर की 'अम्बर' (१९५२) का मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने गाया "शमा जली परवाना आया.." जैसे गानें थें। इसी में थी क्लासिक म्यूजिकल ए. आर. कारदार की 'दिल-ए-नादान' (१९५३) जिसमें श्यामा के साथ गायक तलत महमूद नायक थे और उन्होंने गाया "ज़िन्दगी देनेवाले सुन, तेरी दुनिया से दिल भर गया.." दिलों को छू गया!

'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) के पोस्टर में भारत भूषण और सुरैया!
..और १९५४ में सोहराब मोदी की फ़िल्म आयी 'मिर्ज़ा ग़ालिब' जिसमें उर्दू के इस महान शायर की नज़्में और ग़ज़लों को गुलाम मोहम्मद जी ने अपने संगीत से चार चाँद लगाएं। इसकी नायिका-गायिका सुरैया के "नुक़्त चिन है..", "आह को चाहिए एक उम्र.." और "ये ना थी हमारी क़िस्मत.." और तलत महमूद ने उनके साथ (भारत भूषण के लिए) गाए "दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है.." जैसे गीत बाक़माल रहें। उनके इस संगीत ने 'एच एम् व्ही' की 'सारेगामा गोल्डन डिस्क' जीती। और 'सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म' के साथ संगीत का राष्ट्रीय सम्मान!

इसके बाद सोहराब जी की ही 'कुंदन' (१९५५) फ़िल्म का उन्होंने सगीत दिया इसमें रफ़ी जी ने गाया "नौजवानों भारत की तक़दीर बना दो.." अहम रहा! फिर 'पाक़ - दामन' (१९५७) और 'शमा' (१९६१) जैसी फ़िल्मों का संगीत देने के बाद, गुलाम मोहम्मद जी के पास आयी क़माल अमरोही की शानदार 'पाकीज़ा' (१९७१) जो उनकी आख़री रही। कोठे की साहिबजान और नवाब का पाक़ प्यार तथा उनके प्रति समाज का रवैया पर यह फ़िल्म अमरोही जी ने ही लिखी थी। साथ ही इस के कुछ गीत भी, जैसे ऊपर दिया हुआ! इसमें मजरूह - सुल्तानपुरी जी का "इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा." और कैफ़ी आज़मी जी का "चलते चलते यूँही कोई मिल गया था.." जैसे लता मंगेशकर जी ने गाएं गानें और उसपर के मुज़रा नृत्यों में मीना कुमारी ने उस किरदार के दर्द को ख़ूब बयां किया।

'पाकीज़ा' (१९७१) के पोस्टर में मीना कुमारी और राज कुमार!
'पाकीज़ा' में गुलाम मोहम्मद जी के संगीत ने बड़ा योगदान दिया। लेकिन दर्शक-श्रोताओं पर उसका लाजवाब असर देखने के लिए वे रहे नहीं। हालांकि, फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक पूरा करने के लिए नौशाद जी को आना पड़ा। वैसा ही मीना कुमारी के बारे में भी..उसके जाने के बाद फ़िल्म मशहूर हुई।

यह अमर भूमिका और संगीत की अनोखी मिसाल रहीं!..इन दोनों के लिए इसका, 
मीना कुमारी-राज कुमार पर फ़िल्माया और मोहम्मद रफ़ी-लता मंगेशकर ने गाया..
कैफ़ भोपाली जी का यह गीत याद आया..
"चलो दिलदार चलो..चाँद के पार चलो.."

उन्हें सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 16 March 2021

 भारतीय सिनेमा की पहली टॉकी 'आलम आरा'..९०!


जज़्बातों को परदेपर बयां करनेवाली
हुस्न-इश्क़ की मौसीक़ी सुनानेवाली
अपने सिनेमा को जिससे ज़ुबान मिली
वह अर्देशिरजी की 'आलम आरा' ही थी

- मनोज 'मानस रूमानी'


अपने भारतीय सिनेमा की पहली टॉकी अर्देशिर ईरानी की 'आलम आरा' (१९३१) के ९० साल पुरे होने पर!

Monday 15 March 2021

'आनंद' मरतें नहीं..!


'आनंद' (१९७१) फ़िल्म के "ज़िंदगी कैसी हैं पहेली.." गाने में राजेश खन्ना!

"ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं..!"
यह गहरी सोच देकर परदेपर छोटी लेकिन सभी के दिलों को हिलानेवाली बड़ी ज़िंदगी जी कर रुलाके गया था..'आनंद' सुपरस्टार राजेश खन्ना!
संवेदनशील निर्देशक हृषिकेश मुख़र्जी की वह हृदयस्पर्शी फ़िल्म प्रदर्शित होकर अब ५० साल हो गएँ हैं।

'इकिरु' (१९५२) में ताकाशी शिमुरा!

विख्यात जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसवा की क्लासिक फ़िल्म 'इकिरु' (१९५२) से यह प्रेरित थी। हालांकि इसका ज़िक्र नहीं किया गया! दक़ियानूसी काम में उलझे बाबू वातानबे को जब मालूम होता है की उसे कैंसर हैं तब वो बची हुई ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का सोचता हैं और उसमे अर्थ खोजने की कोशिश करता है। यह स्टोरी प्लाट था उसका, जिसे कुरोसवा ने जानेमाने जापानी स्क्रीनरायटर्स हिदेओ ओगुनी और शिनोबू हाशिमोतो के साथ लिखा था। और दिग्गज अभिनेता ताकाशी शिमुरा ने उसे परदेपर जैसे जिया था। 'बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल' में सम्मान के साथ इसे आंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना भी मिली!

विख्यात जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसवा
ख़ैर, १९७० के दौरान बिमल दत्ता, बिरेन त्रिपाठी, डी एन मुखर्जी के साथ हृषिदाने 'आनंद' फ़िल्म को लिखा। ताज्जुब की बात यह थी की, इसके को-प्रोडूसर एन सी सिप्पी ने पहले किशोर कुमार और मेहमूद को इसके लिए सोचा था! लेकिन कुछ ग़लतफ़हमी से हृषिदा को किशोरदा के यहाँ बुरा अनुभव आया। तो उससे ख़फ़ा हृषिदा के मन में इस किरदार के लिए आया..राज कपूर, जिसे पहले फ़िल्म 'अनाड़ी' (१९५९) में वे निर्देशित कर चुके थे। वो उन्हें "बाबू मोशाय" बुलाता था!


'आनंद' (१९७१) के क्लाइमेक्स में राजेश खन्ना, सुमिता सन्याल और अमिताभ बच्चन!
बहरहाल, आख़िर यह फ़िल्म सुपरस्टार राजेश खन्ना के पास आयी। फिर गुलज़ार ने हृषिदा के साथ इसकी पटकथा, तथा संवाद और कुछ गीत भी लिखें। उनकी शैली के अनुसार यह फ्लैशबैक से शुरू होती है, जिसमे डॉ. भास्कर को उसके उपन्यास..'आनंद' के लिए सम्मानित किया जा रहा है। वो कहता है, 'दरअसल यह उसके डायरी के पन्ने है जो (कैंसर के मरीज) आनंद की ज़िदगी को बयां करतें हैं!'
यह किरदार धीरगंभीर (तब उभरता) अमिताभ बच्चन ने निभाया, जिसे 'आनंद' राजेश खन्ना इसमें "बाबू मोशाय" कहता हैं।
'आनंद' (१९७१) फ़िल्म के संवेदनशील निर्देशक हृषिकेश मुख़र्जी

फिर अतीत में, आनंद के मज़ाकिया रवैये से तंग आकर भास्कर जब उसे पूछता है 'मालूम भी है तुम्हे क्या बीमारी है?' तब आनंद कहता है "हाँ, मुझे कैंसर है और मै ज़्यादा से ज़्यादा छः महिने ज़िंदा रहूँगा!" उस की ज़िंदादिली देखकर यह डॉक्टर उसका क़ायल होता है। अपनी सेहत को लेकर परेशान डॉ. भास्कर को संभालते आनंद तब बंगाली में कहता हैं, “ऐ बाबूमोशाय, ऐतो भालो बाशा भालो नाय, इतना प्यार अच्छा नहीं!" बाद में अपने तरीके से बची हुई ज़िंदगी बसर करनेवालें (अपना दुख दबा कर) सबके जीवन में खुशियाँ भरनेवाले इस आनंद को राजेश खन्ना ने परदेपर बाकमाल जिया हैं। और सबके दिलों में पहुँचकर आँखें नम करता गया हैं।

इसके क्लाइमेक्स में आनंद जान चली जाते समय, भास्कर की परेशानी देखकर नर्स को कहता है "मुझे बचाओ, मेरी मौत वो बर्दाश्त नहीं कर पाएगा!" इसके आगे बजती टेप में भास्कर की कविता के बाद..उसे पुकारते जान छोड़ चुके आनंद के पास भास्कर दौड़ा आता हैं। तब "बातें करो मुझसे.." कहनेवाले भास्कर को उस टेप का अगला हिस्सा सुनाई देता हैं, जिसमे मूल कलाकार रहा यह शख़्स अपनी खुशनुमा आवाज़ में सुनाई देता हैं "ज़िंदगी और मौत तो उपरवाले की हाथों में हैं जहाँपनाह.." आख़िर में उसका "हाह s हाह s हाह s.." हंसना! यह सीन गुलज़ार-हृषिदा टच की अनोखी मिसाल हैं, जिसमें राजेश खन्ना ने किरदार से जाते हुए, पूरी जान डाली हैं! बहोत हेवी और रुलानेवाला हो गया हैं यह!

शुरू से आख़िर ऐसा दृष्यानुसंधान सिनेमैटोग्राफर जयवंत पाठारे के अर्थपूर्ण क्लोज़अप्स से और खुद अपने सूचक संकलन से हृषिदा ने बड़ा असरदार बनाया हैं। अहम भूमिका के राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के साथ उसका प्यार सुमिता - सन्याल, डॉक्टर की भूमिका में रमेश देव से ललिता पवार और जॉनी वॉकर तक सभी कलाकारों ने इसमें अपना सार्थ योगदान दिया हैं। ग़ौरतलब की, राजेश की आवाज़ बने किशोर का एक भी गाना इसमें नहीं! इसके गीत भी गहरा अर्थ समाएं हैं, जिसमें गुलज़ार की कविता हैं और मन्ना डे ने गाया योगेश जी का सलिल चौधरी के संगीत में ढला "ज़िंदगी कैसी हैं पहेली..."

१९७१ में प्रदर्शित 'आनंद' हिट रही और इसे 'सर्वोत्कृष्ट हिंदी फ़िल्म' का राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ। साथ ही 'फ़िल्मफेयर' के छः अवार्ड्स मिलें, जिसमें निर्देशक-लेखक हृषिदा, गुलज़ार के साथ राजेश खन्ना को 'सर्वोत्कृष्ट अभिनेता' का पुरस्कार शामिल था।

यह 'आनदं' दर्शकों के दिलों पर छा गया!..और हमेशा रहेगा!!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 11 March 2021

साहिरजी और लताजी..वो भी एक दौर!

जानेमाने शायर-गीतकार साहिर लुधियानवी और स्वरसम्राज्ञी लता मंगेशकर एक-दूसरे की तारीफ़ करतें!
 
जानेमाने शायर तथा गीतकार साहिर लुधियानवी की जन्मशताब्दी अब सम्पन्न हुई। अपने सिनेमा में उनके गीत गूँजने को भी अब सत्तर साल हो गएँ हैं!

'नौजवान' (१९५१) फ़िल्म के "ठंडी हवाएं.." गाने में नलिनी जयवंत।
पिछले साल मैंने साहिर जी के जीवन के 
कुछ अहम पहलुँओं पर रौशनी डालनेवाले आर्टिकल्स लिखें। जिसमें उनकी और ख्यातनाम पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम 
की मोहब्बत की दास्ताँ भी थी!

अब रही हुई महत्वपूर्ण बात, जिस से अपने उसूल के पक्के साहिर जी मालूम होंगे! 
'गीत में शायर या कवी के शब्द ज़्यादा अहमियत रखतें हैं और उसके बाद संगीत तथा गानेवालें' ऐसा मानना था उनका! कहतें हैं, इसलिए गायिका लता मंगेशकर से (कुछ एक रुपैया) ज्यादा मानधान की मांग की थी उन्होंने! इससे दोनों में दरार पैदा हुई थी।

'हम दोनों' (१९६१) फ़िल्म के "अल्लाह तेरो नाम.."  गाने में नंदा।
हालांकि, साहिर को गीतकार की हैसियत से पहली शोहरत जिससे मिली वह गाना लताजी ने ही गाया था "ठंडी हवाएं लेहरा के आयें.." १९५१ में बनी महेश कौल की 'नौजवान' इस फ़िल्म में नलिनी जयवंत ने वह साकार किया था। ख़ैर, दरमियान जो हुआ उस वजह से उन्होंने साहिर के गीत न गाने का सोचा। बाद में, प्रख्यात फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा जी ने मनाने पर लताजी राजी हो गई! फिर उन्ही के 'साधना' (१९५८) फ़िल्म का साहिर जी का यथार्थवादी गीत लताजी ने गाया "औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया.." जिसे वैजयंतीमाला ने वैसे ही दर्दभरे भाव से साकार किया।

'आँखें' (१९६८) के "मिलती है ज़िंदगी में.." गाने में माला सिन्हा
इसके बाद देव आनंद की १९६१ में बनी, विजय आनंद निर्देशित फ़िल्म 'हम दोनों' के लिए सेक्युलर साहिर जी ने बड़ा यथार्थवादी गीत लिखा "अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम..सबको सन्मति दे भगवान.." इसे जयदेव जी के संगीत में लता जी ने बड़ी भावुकता से गाया और नंदा जी ने सात्विकता से साकार किया। इसकी अहमियत निरंतर महसूस होंगी! फिर रामानंद सागर जी की फ़िल्म 'आँखें' (१९६८) का साहिर का रोमैंटिक गीत "मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी.." लताजी ने बख़ूबी गाया और ख़ूबसूरत माला सिन्हा ने लाजवाब साकार किया

'ताजमहल' (१९६३) फ़िल्म के "जो वादा किया वो.." गाने में प्रदीप कुमार और बिना राय।
हमारे अज़ीज़ गायक मोहम्मद रफ़ी जी के साथ लता जी ने गाएं साहिर जी के रूमानी युगल गीत भी बेहतरीन रहें। जैसे, १९६३ में निर्मित एम्. सादिक़ निर्देशित मुस्लिम सोशल 'ताजमहल' का दिल को छूनेवाला "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा.." जिसे प्रदीप कुमार और बिना राय ने अपनी अदाकारी से यादगार बनाया! फिर 'इज़्ज़त' (१९६८) फ़िल्म का "ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं, हम क्या करें.." जिसे तनुजा और धर्मेंद्र ने उसी गहनता से साकार किया था।

साहिर जी के ऐसे कई गीतों को आगे लता जी की आवाज़ मिलती रही और दोनों एक-दूसरे की तारीफ़ करते रहें, जिसकी मिसाल ऊपर की तस्वीर देती हैं।

ख़ैर, मैं तो दोनों को बहुत मानता हूँ और लता मंगेशकरजी का बड़ा आदर करता हूँ। मेरे 'चित्रसृष्टी' संगीत विशेषांक को, अपने पास बिठा कर लता जी का सराहना मेरे लिए एक सुनहरा पल बनके रह गया है!

- मनोज कुलकर्णी

Sunday 7 March 2021

सनी डेज के ५० साल!

भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान सुनील गावस्क!

विश्व के दिग्गज बल्लेबाजों में से एक, अपने भारत के पूर्व कप्तान सुनील गावस्कर ने क्रिकेट की दुनिया में ५० साल पूरे किएं हैं।
 
पारिवारिक मराठी फ़िल्म 'सावली प्रेमाची' (१९८०) में सुनील गावस्कर!
हालांकि मेरी क्रिकेट में रूचि सिर्फ स्कूल के दिनों तक ही सीमित रही। (सिनेमा से मेरा लगाव बरक़रार रहा) फिर भी अपने क्रिकेट जगत के गावस्कर और लेफ्ट हैंडर बॉलर करसन घावरी तब हमारे हीरों थे!

'सावली प्रेमाची' में सुनील गावस्कर और मधुमती
मुझे याद है वह जल्लोष जब.. सर्वाधिक शतक बनाने का ऑस्ट्रेलिया के ब्रैडमैन का रिकॉर्ड गावस्कर ने तोडा! ३४ शतक और १०००० से ज़्यादा रन्स बनानेवाले अपने इस महान क्रिकेटर का 'पद्मभूषण' और 'अर्जुन' पुरस्कारों से सम्मान हुआ हैं

सिनेमा के परदे पर भी सुनील गावस्कर ने कुछ (एक्टिंग) बल्लेबाजी की! इसमें रोमैंटिक पारिवारिक मराठी 'सावली प्रेमाची' (१९८०) में वो एक नायक था; तो क्रिकेट की पार्श्वभूमीपर बनी कॉमेडी हिंदी 'मालामाल' (१९८८) में उसका गेस्ट अपीयरेंस था!

ख़ैर, उन्हें मुबारक़बाद!!

- मनोज कुलकर्णी