Friday 30 April 2021


कोई रूमानियत से तो कोई इल्म से..
ज़िंदगी ज़िंदा दिली से जी कर गएँ वे

- मनोज 'मानस रूमानी'

अपने भारतीय सिनेमा के दो लाजवाब अदाकार ऋषि कपूर और इरफ़ान ख़ान को साल बाद याद करतें है!

- मनोज कुलकर्णी

Thursday 29 April 2021

ऐसी सुरीली ठंडक!!!


अपने भारतीय सिनेमा के महान पार्श्वगायक..मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद कोल्ड ड्रिंक्स लेते हुए।

इस ग़र्मी के दिनों में यह दुर्लभ तस्वीर देखकर मेरे दिलोदिमाग़ को सुरीली ठंडक पहुँची!

और आजकल की विचित्र परिस्थिती में भी..मैं रफ़ी साहब का गाना गुनगुनाने लगा..
"मदहोश हवा मतवाली फ़िज़ा..संसार सुहाना लगता हैं.."

- मनोज कुलकर्णी

तोशिरो म्यूफुन या विनोद खन्ना!

अकीरा कुरोसावा की तोशिरो म्यूफुन अभिनीत 'हाई एंड लौ' (१९६३) का सीन!
 
परसो बॉलीवुड के हैंडसम अभिनेता विनोद खन्ना का स्मृतिदिन था और दिग्गज जापानी अभिनेता.. तोशिरो म्यूफुन का जनमदिन इसी महीने हो गया! तो मुझे याद आयी दोनों की एक ही स्टोरी-जॉनर की हिट फिल्में!

राज एन. सिप्पी ने बनाई विनोद खन्ना स्टार्रर बॉलीवुड रीमेक 'इन्कार' (१९७७) का सीन!
इसमें पहली है विश्वविख्यात जापानी फ़िल्मकार अकीरा - कुरोसावा की तोशिरो म्यूफुन अभिनीत 'हाई एंड लौ' (१९६३) और दूसरी राज एन. सिप्पी की विनोद खन्ना स्टार्रर बॉलीवुड रीमेक 'इन्कार' (१९७७).
 
हालांकि, पहली में जापानी अभिनेता तात्सुया नाकादायी ने जो इंस्पेक्टर की भूमिका की थी वह सीआईडी इसमें विनोद खन्ना हुए थे और म्यूफुन वाले किरदार में डॉ. श्रीराम लागु थे! 
 
लेकिन उसमे पूरी फिल्म पर म्यूफुन छाए थे! 

अब ये इस दुनिया में नहीं!!
 
- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 28 April 2021

ख़ूबसूरत राजश्री.."तेरे ख़यालों में हम!"



अपने रूमानी हिंदी सिनेमा में मशहूर रही, एक मराठी ख़ूबसूरत अभिनेत्री याद आयी (हालांकि उसे भुला तो नहीं था) वो है राजश्री..जो अमरीकन से शादी करके वहां हमेशा के लिए चली गयी!

अपने दिग्गज फ़िल्मकार पिता व्ही. शांताराम के साथ राजश्री!
हमारे भारतीय सिनेमा के दिग्गज फ़िल्मकार व्ही. शांताराम और उस ज़माने की ख़ूबसूरत अभिनेत्री ('शकुंतला' फेम) जयश्री इनकी बेटी.. राजश्री! अपने माता-पिता के साथ १९५४ में 'सुबह का तारा' इस फ़िल्म में वो बालकलाकार की हैसियत से परदे पर आयी. बाद में पिता की फ़िल्म 'स्त्री' (१९६१) में वो षोडशा ही थी।
आगे साऊथ फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज एस. - एस. वासन निर्मित और किशोर साहू निर्देशित पारिवारिक फ़िल्म 'गृहस्ति' (१९६३) में वो नायिका के रूप में उभर आयी..जिसमे उसके नायक थे मनोज कुमार! बाद में इसी साल साहू जी की फ़िल्म 'घर बसा के देखो' में भी ये नायक-नायिका थे।

फिर १९६४ में गुलशन नंदा की उपन्यास पर एस. डी. नारंग ने बनायी 'शहनाई' (१९६४) फ़िल्म में मनोज कुमार और बिस्वजीत के साथ राजश्री आयी। इसमें बिस्वजीत-राजश्री का "ना झटको जुल्फ़ से पानी, ये मोती फूट जाएँगे..तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मगर दिल टूट जायेंगे.." इस रफ़ी जी ने गाए गीत में रूमानीपन ख़ूब दिखा! बाद में इसी साल राजश्री के फ़िल्मकार पिता व्ही. शांताराम ने उसे एक अनोखे रूप में नायिका की तौर पर परदे पर लाने के लिए 'गीत गाया पत्थरों ने' इस फ़िल्म का निर्माण किया। इसमें उसे शिल्पकार की प्रेरणा दिखाया है और उसके साथ नौजवान रवि कपूर को नायक के रूप में सादर किया गया..जिसे जिंतेंद्र यह नाम राजश्री ने दिया! इस फ़िल्म का शिर्षक गीत प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोणकर से खास गवाया था। यह फ़िल्म अपनी क़िस्म की कलात्मक ही थी और इसके फ़िल्मांकन के लिए सिनेमैटोग्राफर कृष्णराव वशिर्द को 'फ़िल्मफ़ेअर' पुरस्कार मिला!
पिता व्ही. शांताराम की 'गीत गाया पत्थरों ने' (१९६४) फ़िल्म में जिंतेंद्र के साथ राजश्री!

उसमें राजश्री की अदाकारी की तारीफ़ हुई। वैसे पहले ही - मनोज कुमार, बिस्वजीत जैसे अभिनेताओं के साथ आकर वो सफल अभिनेत्री हो ही गयी थी! फिर धर्मेंद्र से राज कपूर तक (उम्र से बड़े) अभिनेता के साथ वो नायिका के रूप में नज़र आयी! इसमें उसकी 'जानवर' (१९६५) यह रिबेल स्टार शम्मी कपूर के साथ रोमैंटिक म्युज़िकल हिट रही। उस ज़माने का फेमस इंग्लिश बैंड 'बीटल्स' के "आय वांना होल्ड यूअर हैंड.." इस हिट धून पर "देखो अब तो किस को नहीं है खबर.." इस गाने में शम्मी-राजश्री का डांस आकर्षक रहा! इससे अलग "मेरी मोहब्बत जवाँ रहेगी.." इस रफ़ी जी ने गाए संजीदा रूमानी गाने में इन दोनों की प्रेमभावनाएँ दिल को छू गयी!

रोमैंटिक म्युज़िकल 'जानवर' (१९६५) में राजश्री और रिबेल स्टार शम्मी कपूर!
फिर राजश्री के जीवन में एक अलग मोड़ आया! 'अराउंड दी वर्ल्ड' (१९६७) इस राज कपूर के साथ उस ज़माने की 'रोम - कॉम' की शूटिंग के दरमियान उसकी मुलाक़ात अमरीकन ग्रेग चैपमैन से हुई और उनमें इश्क़ हुआ। बाद में उसका फ़िल्मों पर से ध्यान जैसा उड़ गया! सुना है की इसी वजह से तंग आकर खुद उनके पिता शांतारामजी ने अपनी 'बूँद जो बन गएँ मोती' फ़िल्म में उसकी जगह नयी मुमताज़ को लिया! फिर राजश्री ने जितेंद्र के साथ 'गुनाहों का देवता' (१९६७) और 'सुहाग रात' (१९६८) ये फ़िल्में किसी तरह पूरी की!.. और दो साल में ही चैपमैन के साथ शादी करके वो अमरीका जाकर बस गयी!
अमरीकन ग्रेग चैपमैन के साथ शादी करके जा रही राजश्री!

शम्मी कपूर की 'ब्रह्मचारी' (१९६८) यह..
जी. पी. सिप्पी निर्मित और भप्पी सोनी ने निर्देशित की फ़िल्म राजश्री की आखरी रही! इस हिट फ़िल्म को 'फ़िल्मफ़ेअर' जैसे कई अवार्ड्स मिले; लेकिन उसे नहीं! 'बेस्ट एक्टर' मिले शम्मी के साथ "आज कल तेरे मेरे प्यार के चर्चे.." गाने में नाचनेवाली मुमताज़ को भी 'बेस्ट सपोर्टिंग' का मिला! यह है फ़िल्मी दुनिया!

ख़ैर, पिछले ३० साल राजश्रीजी अपने वैवाहिक जीवन को लॉस एंजेलिस में अच्छी एन्जॉय कर रही है! अब वह ७५ साल की हैं और उन्हें एक बेटी भी है! उनके भाई किरण शांताराम मराठी सिनेमा के क्षेत्र में निर्माता रह चुके है। ऐसा पता चला हैं की अपने पति के साथ कपडे के व्यवसाय में सफल वे अब भी सिनेमा क्षेत्र में रूचि रखती हैं!..'हैक-ओ-लैंटर्न', 'टैण्टेड लव' और 'मॉनसून' जैसी फिल्मों को सहायक रही उन्होंने 'अशोक बाय अनादर नेम' इस चिल्ड्रेन वीडियो को नरेशन भी दिया है।

'ब्रह्मचारी' (१९६८) के उस गाने में भावुक राजश्री!
फिर भी 'ब्रह्मचारी' में शम्मी कपूर, इसके 'सर्वोत्कृष्ट गायक'.. मोहम्मद रफ़ी ने गाया जो गाना राजश्री की तरफ़ देखकर गाते है..
वही हमारी उसके लिए भावनाएं हैं..

"दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर
यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर
रखूँगा मैं दिल के पास.."

- मनोज कुलकर्णी

Monday 26 April 2021

"यारी मेरी कहेती है ..
यार पे कर दे सब क़ुर्बान.."


'क़ुर्बानी' (१९८०) में ऐसी ख़ूब यारी दिखानेवाले फ़िरोज़ - खान का पहले (२००९ में) और विनोद खन्ना का उसके बाद (२०१७ में) इसी २७ अप्रैल को जहाँ को अलविदा करना..

इसको कैसा संजोग कहे..वाकई में यारी निभाना!

'क़ुर्बानी' फ़िल्म को अब ४० साल हो गएँ हैं।

इनको सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

Sunday 25 April 2021

इन्सानियत ही वृद्धिंगत हो!


मैं धार्मिक नहीं, लेकिन मुझे अपने सिनेमा के दृश्यों में जब मंदिरों, गिरिजाघरों की घंटियाँ और मस्ज़िदों की अज़ान..यह जब मधुरता से सुनाई देता हैं तब अपनी अनोखी गंगा-जमुनी संस्कृति पर नाज़ होता है।

'धुल का फूल' (१९५९) के "इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा.." 
गाने में छोटे बच्चे के साथ मनमोहन कृष्ण जी!
 
साहिर लुधियानवी ने जैसे फ़िल्म 'मुझे जीने दो' (१९५७) के गीत में कहाँ हैं..
 
"आज गौतम की ज़मीं, 
तुलसी का बन आज़ाद है
मंदिरों में शंख बाजे, 
मस्जिदों में हो अज़ान..
शेख का धर्म और 
दीन-ए-बरहमन आज़ाद है"

सामाजिक सलोखा रखनेवाले अपने सिनेमा के कुछ दृश्यं तथा क़िरदार भी मेरे स्मृति पटल पर निरंतर रहतें हैं।

अपने जानेमाने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की पहली फ़िल्म 'धुल का फूल' (१९५९) में.. मनमोहन कृष्ण ने साकार किए अब्दुलचाचा लावारिस बच्चे को गोद लेकर उसकी अच्छी परवरिश करके उसके साथ खेलते सुनातें हैं..
'दोस्त' (१९७४) के "गाड़ी बुला रही हैं.." गाने में मास्टर बंटी के साथ अभी भट्टाचार्य!
 
"तू हिन्दु बनेगा न मुसलमान बनेगा..
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा.."
 
..रफ़ीजी ने दिल से गाया साहिर जी का ही यह गीत।

ऐसे ही दुलाल गुहा की फ़िल्म 'दोस्त' (१९७४) में अभी - भट्टाचार्य जी ने साकार किए फादर फ्रांसिस..जो अनाथ बच्चे को "मानव' नाम देकर अच्छे विचारों से बड़ा करते हैं।

अभी के हालातों के मद्देनज़र..अपने सिनेमा, कला, साहित्य से ऐसे संस्कार होते रहें!

- मनोज कुलकर्णी


श्रेष्ठ कवि और गायक परिवारों का मिलाप!


भारतीय सिनेमा की जानीमानी ख़ूबसूरत अदाकारा..शर्मिला टैगोर!

अपने रूमानी भारतीय सिनेमा के सुवर्ण काल की जानीमानी ख़ूबसूरत अदाकारा..शर्मिला टैगोर जी को 'मास्टर दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार' जाहीर हुआ हैं।

स्वरसम्राज्ञी..लता मंगेशकर जी!
इस वक़्त मुझे एक अनोखा मिलाप इसमें नज़र आया.. कविवर्य रबीन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से है शर्मिलाजी और गायक मास्टर दीनानाथ जी की कन्या स्वरसम्राज्ञी..लता मंगेशकर जी!

वैसे लताजी ने रबीन्द्रनाथजी का यह मशहूर बांग्ला गीत गाया है..
"जोड़ी तोर डाक शुने केऊ ना 
असे तोबे एकला चोलो रे.."


'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८) के "चलो सजना.." गाने में शर्मिला टैगोर!
शर्मिलाजी नायिका रहीं कई फिल्मों के उनके गीत लताजी ने गाएं, जैसे की उनके खुद के पसंदीदा गानों में से..
"चलो सजना जहाँ तक घटा चले..लगा कर मुझे गले.."

मजरूह जी का लिखा यह गीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने संगीत बद्ध किया था फ़िल्म 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८) के लिए। और संजोग की बात यह की प्यारेलाल शर्मा जी को भी इस साल यह पुरस्कार घोषित हुआ है

इनको मुबारक़बाद!!

- मनोज कुलकर्णी

एक्सक्लुजिव्ह!

'बेकेट' से 'नमक हराम' और 'बेईमान' तक!


'बेकेट' (१९६४ ) इस पीटर ग्लेनविल्ले निर्देशित
फिल्म में पीटर ओ'टूले और रिचर्ड बर्टन!

मशहूर फ़्रांसीसी लेखक जाँ अनौइल्ह ने 'बेकेट' यह नाटक लिखा था। वह स्टेज पर आकर अब ६० साल हुएं हैं! इस पर बहोत अर्से पहले उसी नाम की अंग्रेजी फिल्म भी बनी।..और हमारे यहाँ 'नमक हराम' यह सफल हिंदी फ़िल्म और 'बेईमान' यह मराठी नाटक भी!

'बेकेट' इस मूल फ्रेंच नाटक के लेखक जाँ अनौइल्ह!
'बेकेट' या 'द ऑनर ऑफ़ गॉड' यह नाटक राजा हेनरी द्वितीय और थॉमस बेकेट के बीच संघर्षों का एक पुन: प्रवर्तन है! पहले राजा का अच्छा दोस्त बेकेट बाद मे कैंटरबरी का आर्च बिशप बनने के बाद राजा की शक्ति के खिलाफ चर्च के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए प्रयास करता है। ऐसा अनौइल्ह ने लिखे इस 'बेकेट' का मूल सार था। इसे पहली बार मूल फ्रेंच भाषा में ही ८ अक्टूबर, १९५९ में 'थिएटर मोंत्पर्नास्से' में मंचित किया गया।

उसके बाद इसका पहला 'ब्रॉडवे प्रॉडक्शन' ५ अक्टूबर,१९६० में 'सेंट जेम्स थिएटर' में सादर हुआ। डेविड मेर्रिक ने इस का निर्माण किया था और पीटर ग्लेनविल्ले ने निर्देशन। इसमें मेक्सिकन अभिनेता एंथोनी क्विन ने किंग हेनरी द्वितीय का किरदार निभाया था और थॉमस बैकेट की शिर्षक भूमिका की थी ब्रिटिश अभिनेता लॉरेंस ओलिवियर ने। दोनों मंजे हुएं कलाकार होने के कारन उसे सराहा गया और प्रतिष्ठित 'टोनी अवार्ड्स' भी मिले!

'नमक हराम' (१९७३) इस हृषिकेश मुख़र्जी निर्देशित 
फिल्म में रेखा, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन!
फिर १९६४ में यह नाटक फिल्म के रूप में परदेपर आया। इसे मूल संहिता के अनुसार नहीं बल्कि कुछ काल्पनिक कथा के रूप में पेश किया गया था। इसके लिए एडवर्ड अनहल्ट ने अतिरिक्त सीन्स लिखें। अमेरिकन हल वॉलिस निर्मित इस फिल्म का निर्देशन ब्रिटिश पीटर ग्लेनविल्ले ने किया था। अतिभव्य आउटडोअर में चित्रित कॉश्चुम ड्रामा की तरह ही यह था! इसमें पीटर ओ'टूले ने किंग हेनरी द्वितीय और हैंडसम रिचर्ड बर्टननें थॉमस बैकेट ये किरदार प्रभावी तरीके से साकार किएं। इसे कई अवार्ड्स मिले जिसमे अनहल्ट को 'बेस्ट अडाप्टेड स्क्रीनप्ले' का 'ऑस्कर', ब्रिटिश सिनेमैटोग्राफर जेओफ्री उन्सवर्थ को 'उत्कृष्ट फिल्मांकन' का 'बाफ्टा' और पीटर ओ'टूले को 'बेस्ट एक्टर' का 'गोल्डन ग्लोब' शामिल हैं!

इसके बाद 'बेकेट' हमारे भारतीय सिनेमा के परदेपर नहीं आता तो आश्चर्य होता; क्यों की इसका बॉलीवुड जॉनर में बैठनेवाला प्लॉट! १९७३ में जानेमाने फ़िल्मकार हृषिकेश मुख़र्जी जी ने 'नमक हराम' नाम से इसे बनाया..जिसके लिए उन्होंने गुलज़ार जी के साथ इसकी पटकथा लिखी। इसमे उन्होंने 'बेकेट' को अमीर और गरीब दोस्तों की कहानी में डालकर उसे पूंजीवाद और समाजवाद के संघर्ष का रंग दिया! उद्योजक का बेटा विकी अपने पिता की मिल की समस्या सुलझाने के लिए अपने गरीब जरूरतमंद दोस्त सोमू को वहां लाता है। लेकिन बाद में वो वहां यूनियन लीडर बनता है और फिर इस दोस्ती में दरार पैदा होता है। इसमें अमिताभ बच्चन ने अमीर विकी और राजेश खन्ना ने इमानदार सोमू ये किरदार बख़ूबी निभाएं थे! उनके साथ सिम्मी ग्रेवाल, रेखा और विशेष भूमिका में रज़ा मुराद थे।

'नमक हराम' (१९७३) फिल्म के चित्रीकरण दौरान अभिनेते..
राजेश खन्ना-अमिताभ बच्चन से चर्चा करते निर्देशक हृषिकेश मुख़र्जी!
'नमक हराम' ने बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता हासिल की। इसके आनंद बक्षी ने लिखें और आर. डी. बर्मन ने संगीत दिए "नदिया से दरिया.." और "दिएँ जलतें हैं फूल खिलतें हैं..बड़ी मुश्किल से मगर दुनियाँ में दोस्त मिलतें हैं.." जैसे किशोर कुमारने गाएं गानें हिट हुएं। इसके लिए राजेश खन्ना को 'बी एफ जे ए' का 'सर्वोत्कृष्ट अभिनेता' और अमिताभ बच्चन को 'फ़िल्मफ़ेअर' का 'सर्वोत्कृष्ट सहायक अभिनेता' पुरस्कार मिलें!
 
आगे विख्यात मराठी नाटककार वसंत कानेटकर ने भी 'बेकेट' से प्रेरणा लेकर 'बेईमान' नाटक लिखा। प्रसिद्ध रंगकर्मी प्रभाकर पणशीकर ने सफलता से उसे रंगमंच पर लाया। मुझे याद है इन दोनों नाट्यकृतिओं की तुलना पर पुणे में कानेटकर जी और पणशीकर जी की हुई संगोष्ठी!

'नमक हराम' (१९७३) के "मैं शायर.." गाने में रज़ा मुराद!
लेकिन 'नमक हराम' फिल्म अपनी अलग पहचान बनाते एक क्लासिक होकर रह गई। इसकी ख़ास बात यह थी की सुपरस्टार राजेश खन्ना से उभरते 'एंग्री यंग मैन' (आने वाले सुपर स्टार) अमिताभ बच्चन का हुआ कड़ा  मुक़ाबला! इन दोनों की अभिनय विशेषताओं को दर्शातें इसके सीन्स मुझे याद हैं..जैसे नाराज़ अमिताभ की तरफ़ देखकर उसकी मंगेतर सिम्मी को राजेश का अपनी धीमी आवाज़ से कहना "आज कल हमारी कट्टी हैं!" और जब राजेश पर 'मैनेजमेंट का आदमी' समझकर हमला होता है, तब अमिताभ का वहा ग़ुस्से से आकर कहना.."मेरे सोमू को कुछ हो गया तो मै पूरी बस्ती को आग लगा दूंगा!"..दोनों अपनी जगह बराबर थे! 

फिर भी मुझे पूछे तो, इसमे ज़िंदगी से हारे शायर की भूमिका में रज़ा मुराद उनपर काफ़ी हावी हुए! एक बार यहां 'फिल्म इंस्टिट्यूट' में जब वह मिले तो मैंने उनसे कहा, "रज़ा साहब आप ने तो 'नमक हराम' में दोनों सुपरस्टार्स को खा लिया!" यह सुनकर उन्होंने प्यारसे मेरा हाथ दबाया था!!

- मनोज कुलकर्णी

Friday 23 April 2021

दिल है कि मानता नहीं!


संगीतकार (नदीम-श्रवण में से) श्रवण राठौड़!

१९९० के दशक में रोमैंटिक बॉलीवुड म्यूजिक पर एक संगीतकार जोड़ी का जैसे राज था, वो थी..
नदीम-श्रवण!..उसमें से श्रवण राठौड़ का अब के हालातों में निधन हो जाना यह दुखदायक है।

संगीतकार श्रवण राठौड़ और गीतकार समीर की जोड़ी!
 
"नज़र के सामने जिगर के पास.." ऐसे युवा दिल को छू लेनेवाले समीर के गीत और नदीम-श्रवण का संगीत इसने 'आशिक़ी' (१९९१) जैसी फ़िल्म ने भी धूम मचाई थी। "मेरा दिल भी कितना पागल है.." ('साजन'/१९९२), "तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार.." ('दीवाना'/१९९३), "कितना प्यारा तुझे.." ('राजा हिंदुस्तानी'/१९९६) ऐसे इस.. गीतकार-संगीतकार जोड़ी के गाने मशहूर होते रहें। साथ ही वे 'बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर' के 'फ़िल्मफेयर' अवार्डस लगातार जीतते गए। 
और आनंद बक्षी ने लिखें उन्होंने संगीतबद्ध किएं "आय लव माय इंडिया.." ('परदेस'/१९९७) ऐसे गानें उन्हें 'स्टार स्क्रीन' अवार्ड् जीताते गएँ!

'दिल है कि मानता नहीं' (१९९१) के शीर्षक गीत में पूजा भट्ट और आमिर ख़ान!


 
श्रवण जी के ऐसे अचानक जाने पर, उन्ही के संगीत में कुमार सानू और अनुराधा पौडवाल ने गाया गीत याद आता हैं..
"दिल है कि मानता नहीं.."

- मनोज कुलकर्णी

एकमात्र फ़िल्म के दो सितारें साथ!


फ़िल्मकार एस. एस. वासन की 'इंसानियत' (१९५५)

अपने भारतीय सिनेमा के सुनहरे काल के..ट्रैजेडी किंग युसूफ ख़ान याने दिलीप कुमार और एव्हरग्रीन रोमैंटिक हीरो देव आनंद..इन्होने सिर्फ़ एक ही फ़िल्म में साथ काम किया था। वह थी साऊथ के दिग्गज फ़िल्मकार एस. एस. वासन की 'इंसानियत' (१९५५)..जो एक कॉश्चुम ड्रामा था और उसमें बीना रॉय उनके साथ थी!

शायद उस फ़िल्म की पार्टी में एकसाथ खाना खा रहे ये अलग क़िस्म के कलाकार दिलीप कुमार और देव आनंद!

यहाँ अपने फ्रैंक नेचर के चलते देव आनंद खाना दिलीप कुमार की प्लेट से खा रहे हैं।
काश थोड़ी ऐक्टिंग भी उनसे लेते!!

ख़ैर, इस फ़िल्म का नाम और इन दो कलाकारों का साथ में खाना (अब) बहोत मायने रखता हैं!

- मनोज कुलकर्णी

ताजमहल पर मुख़्तलिफ़ राय के दो शायर!!


हमारा ताजमहल दुनिया में 'मिसाल-ए-मोहब्बत' माना जाता हैं!

लेकिन उसपर दो अलग राय रहें ये दो जानेमाने शायर..
 
यथार्थवादी शायर साहिर लुधियानवी और रूमानी शायर शकील बदायुनी!

साहिर जी ने लिखा..
"एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर..
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़!"

तो शकील जी ने लिखा..
"एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल..
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है।"

ग़ौरतलब की, साहिर जी ने पुरानी 'ताजमहल' फ़िल्म के लिए "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा.." 
जैसे नग़्में लिखें। 

ख़ैर, हम जैसे आशिकाना मिज़ाज के जज़्बाती ताजमहल को 'मोहब्बत की लाजवाब मिसाल' ही मानते हैं!

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 21 April 2021

ओ दूर के मुसाफ़िर..!

रूमानी शायर और गीतकार शकील बदायूनी जी!

'लीडर' (१९६४) के "ताजमहल.." गाने में वैजयंतीमाला-दिलीपकुमार!

"एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल
सारी दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है.."
 

मैं अक्सर देखता हूँ यह लाजवाब रूमानी गीत..और तसव्वुर में हसीन ताजमहल के आग़ोश में अपनी मोहब्बत!

तो कभी शायराना मिज़ाज में अपनी माशूक़ा को याद करके यह भी..
"ऐ हुस्न ज़रा जाग तुझे इश्क़ जगाये.."

'मेरे मेहबूब' (१९६३) के "इज़हार.." गाने में राजेंद्र कुमार-साधना!

मेरे ऐसे पसंदीदा रूमानी गीत शायर शकील बदायूनी जी की कलम से आएं थे 

कल उनके स्मृतिदिन पर ऐसे उन्होंने लिखें मुख़्तलिफ़ जज़्बातों के गीत याद आतें रहें।

उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे शकील मसऊदी के वालिद क़ादिरी साहब ने उन्हें अरबी, उर्दू, फ़ारसी की अच्छी तालीम दिलवाई। उनके एक रिश्तेदार ज़िया-उल-कादिरी बदायूनी मज़हबी किस्म के शायर थे। उनसे शुरू में वे मुतासिर हुए और साथ ही बदायूँ का माहौल अपनी शायरी लिखने को उन्हें प्रेरित कर गया।

१९३६ में जब वे 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' में आएं तब वहां के मुशायरों में शरीक हुएं, जिसमें उन्हें काफी सराहा गया। (बाद में उनकी शायरी से सजी रूमानी मुस्लिम सोशल फ़िल्म 'मेरे मेहबूब' में जैसा दिखाया, कुछ वैसा ही माहौल उन्हें असल में यहाँ मिला ऐसा कह सकते हैं!) ख़ैर, यहाँ उन्होंने अब्दुल वहीद 'अश्क' बिजनौरी से बाक़ायदा उर्दू कविता सीखी।

मुशायरे में अपनी शायरी पढ़ते शकील बदायूनी जी!
वहां 'बीए' पूरा करने के बाद वे दिल्ली में एक अधिकारी तौर पर काम करने लगे। साथ ही देश भर के मुशायरों में शरीक होने लगें। उस समय ज़्यादातर शायर निचले दबे समाज के उत्थान से जुडी शायरी में मसरूफ़ थे। लेकिन शकील जी का मिज़ाज रूमानियत से भरा था। वो कहतें थे..
"मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा
कि मोहब्बतों का हूँ राजदान
मुझे फख्र है मेरी शायरी..
मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं"

संगीतकार नौशाद अली, गायक मोहम्मद रफ़ी और गीतकार शकील बदायूनी!
१९४४ के दरमियान फ़िल्मों के लिएं गीत लिखने शकील बदायूनी बम्बई आएं। यहाँ फ़िल्मकार ए.आर. कारदार और संगीतकार नौशाद अली के कहने पर उन्होंने पहली बार फ़िल्म 'दर्द' (१९४७) के लिए लिखा। वह गीत था "हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे.." उसके बाद शकील और नौशाद इस गीतकार और संगीतकार जोड़ी ने एक से एक नग़्मे दिएँ। इस जोड़ी को मोहम्मद रफ़ी की दर्दभरी मीठी आवाज़ मिली..'दुलारी' (१९४९) के "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे.." इस गाने से! बाद में लता मंगेशकर की मधुर आवाज़ भी उनसे जुडी 'बैजू बावरा' (१९५२) के "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा.." डुएट से! उनके गानों पर लाजवाब अदाकार परदे पर बयां होने लगे..जैसे 'दीदार (१९५१) में "मेरी कहानी भूलनेवाले तेरा जहाँ आबाद रहें.." गाने में ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार, 'मदर इंडिया' (१९५७ ) के "दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा.." गाने में लीजेंडरी नर्गिस और 'मुगल-ए-आज़म' (१९६०) के "प्यार किया तो डरना क्या.." गाने में मलिका-ए-हुस्न मधुबाला!

'चौदवीं का चाँद' (१९६०) के शीर्षक गीत में रूमानी गुरुदत्त-वहीदा रहमान!
शकील जी ने नौशाद जी के लिए ज्यादा काम किया। उन दोनों के गीत हमेशा कानों में गूजतें हैं। जैसे की मेहबूब की बेहतरीन 'मदर इंडिया' (१९५७) का शमशाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और आशा भोसले ने गाया "दुख भरे दिन बीते रे भैया..", दिलीप कुमार-मीना कुमारी अभिनीत और रफ़ी-लता ने गाया 'कोहिनूर' (१९६०) का अभिनय-संगीत का अनोखा संगमवाला "दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन.."और मेरे पसंदीदा, शायराना रूमानी 'मेरे मेहबूब' (१९६३) के रफ़ी ने गाएं शीर्षक गीत से लेकर सभी नग़्मे जैसे की "तुमसे इज़हार-ए-हाल कर बैठें.." और रफ़ी-लता का "याद में तेरी जाग जाग के हम.." इसमें राजेंद्र कुमार और साधना की अदाकारी भी लाजवाब थी!

गायक मोहम्मद रफ़ी, गीतकार शकील बदायूनी और संगीतकार रवि!
नौशाद जी के अलावा बाकी दो प्रतिभावान संगीतकारों को भी शकील जी ने गीत लेखन का सहयोग दिया। इनमें प्रमुख फ़िल्में थी जानेमाने अभिनेता -निर्देशक गुरुदत्त की..रवि के संगीत वाली 'चौदवीं का चाँद' (१९६०) और हेमंत कुमार के संगीत वाली 'साहिब बीबी और गुलाम' (१९६२). 'चौदवीं का चाँद' के रफ़ी ने गाए शीर्षक गीत में गुरुदत्त और वहीदा रहमान का शायराना अदांज़ का रूमानीपन लाजवाब था। इसके लिए शकील जी को 'सर्वोत्कृष्ट गीतकार' का पुरस्कार मिला। फिर से रवि के संगीत में ही 'घराना' (१९६१) फ़िल्म के "हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं.." गाने के लिए उनको वह अवार्ड मिला! और आगे हेमंत कुमार जी की फ़िल्म 'बीस साल बाद' (१९६२) के "कही दीप जले कही दिल.." गाने के लिए भी!

शकील जी ने कुल ८९ फ़िल्मों के लिएं गीत लिखें। इसके अलावा उन्होंने गैर-फिल्मीं ग़ज़लें भी लिखीं जो मशहूर  बेग़म अख़्तर और पंकज उधास जैसों ने गायी। 

२० अप्रैल, १९७० में महज़ ५३ साल की उम्र में शकील जी यह जहाँ छोड़ गए।
वे रुख़सत होकर अब पचास साल हो गएँ हैं!


उन्हें यह सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी


एक्सक्लुजिव्ह!


"आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूऱ हैं.."
 
'बहारें फिर भी आएंगी' (१९६६) के "आप के हसीन रुख़ पे.." गाने में धर्मेंद्र, तनुजा और माला सिन्हा!

'बहारें फिर भी आएंगी' (१९६६) इस फ़िल्म का "आप के हसीन रुख़ पे.." यह रफ़ीसाहब ने गाया रूमानी गाना मुझे बहोत पसंद हैं! परदेपर धर्मेंद्र पियानोपर बैठकर यह पेश करते हैं..सामने होतीं हैं ख़ूबसूरत माला सिन्हा और तनुजा..दोनों वह अपने लिए समझती हैं!

     'बहारें फिर भी आएंगी' शुरू करते समय क्लैपरबॉर्ड के साथ गुरुदत्त!
इसकी ताज़्जुब करनेवालीं दो बातें थी..एक यह की (आगे अमिताभ बच्चन की फिल्मों के लिए लिखनेवाले) अंजान जी ने यह लिखा था और दूसरी यह की अपना हमेशा का ('टांगा ह्रिदम' छोड़कर) ओ. पी. नय्यर जी ने इसे रूमानी अंदाज़ में संगीतबद्ध किया था!

एक राज की बात बताएं..असल में उसमें गुरुदत्त पियानोपर बैठे नज़र आते! निर्माता गुरुदत्त जी ख़ुद वह भूमिका साकार कर रहे थे! सिनेमैटोग्राफर जी. के. प्रभाकर से अपनी पसंद से माला सिन्हा के कुछ क्लोज-अप्स इस गाने में उन्होंने फिल्माएं भी..जो अब उस गाने में वैसे ही हैं!..पर वो वहां ठहर न सके!

'बहारें फिर भी आएंगी' शुरू हुई तब प्रमुख भूमिका में माला सिन्हा और गुरुदत्त पर चित्रित प्रसंग!
१९६४ में 'गुरुदत्त प्रोडक्शन' ने फ़िल्म 'बहारें फिर भी आएंगी' शुरू की थी! एक जिगरबाज जर्नलिस्ट तथा इमानदार आदमी की भ्रष्ट समाज में संघर्ष की यह कहानी अब्रार अल्वीजी ने लिखी थी! गुरुदत्त वह भूमिका कर ही रहे थे.. लेकिन यह फिल्म पूरी होने से पहले उसी साल १० अक्टूबर को उन्होंने इस जहाँ को अलविदा कर दिया!

'बहारें फिर भी आएंगी' (१९६६) में माला सिन्हा, धर्मेंद्र और तनुजा!
 
 
बाद में धर्मेंद्र को लेकर निर्देशक शाहिद लतीफ़ जी ने वह फ़िल्म १९६६ में पूरी की..जिसपर 'गुरुदत्त टच' का असर दिखता ही हैं! अब इंटरनेट पर (गुरुदत्तजी के पुत्र) अरुण दत्त से इस फ़िल्म की शुरुआती कुछ तस्वीरें आयी हुई देखीं..जो यहां हैं!

कुछ साल पहले पुणे में, हमारे कोरेगांव पार्क एरिया में अरुण दत्तजी ने उनका इंस्टिट्यूट शुरू किया था! तब मेरी उनसे मुलाकातें होतीं थी और 'गुरुदत्त प्रोडक्शन' की फिल्मों पर आस्वादक चर्चाएं भी! हुबहू अपने पिता जैसे दिखनेवाले उनका हाथ एक बार मैंने श्रद्धा से हाथ में लेकर कहां "मुझे गुरुदत्तसाहब को मिलने का अहसास हो रहा हैं!" यह सुनकर वो भी सद्गदित हुएं!!

- मनोज कुलकर्णी