"न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ!"
'लाल किला' (१९६०) फ़िल्म में यह नज़्म मोहम्मद रफ़ी साहब ने दर्दभरी आवाज़ में गायी थी!
इसे अब ६० साल हो गए। लेकिन जब भी सुनता हूँ आँखें नम होती है!
बहादुर शाह जफ़र साहब की कलम से आयी यह शायरी!
उन्हें यह जहाँ छोड़कर डेढ़सौ से ज्यादा साल हो गए!
परसो उनका स्मृतिदिन था!
उन्हें सलाम!!
- मनोज कुलकर्णी
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