मेरे इस ब्लॉग पर हमारे भारतीय तथा पूरे विश्व सिनेमा की गतिविधियों पर मैं हिंदी में लिख रहा हूँ! इसमें फ़िल्मी हस्तियों पर मेरे लेख तथा नई फिल्मों की समीक्षाएं भी शामिल है! - मनोज कुलकर्णी (पुणे).
Tuesday, 29 December 2020
Friday, 25 December 2020
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देव आनंदजी के पुणे में हुए उस सेलिब्रेशन में उनके साथ ज्योति व्यंकटेश और मैं! |
Thursday, 24 December 2020
Sunday, 13 December 2020
बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा..७५!
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'मेरे अपने' (१९७१) फ़िल्म में शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना! |
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'विश्वनाथ' (१९७८) में शत्रुघ्न सिन्हा |
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सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा..बराबरी! |
सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ सह- नायकवाली 'दोस्ताना', 'शान' (१९८०) जैसी फिल्मों में शत्रुघ्न सिन्हा बराबर रहें! मनोजकुमार की 'क्रांति' (१९८१) में उसका "करीम ख़ान बोल!" ऐसा फिरंगी को कहना दमदार रहा। 'मंगल पांडे' (१९८१) जैसी अकेले के दम पर हो या, 'तीसरी आँख' (१९८२), 'इल्ज़ाम' (१९८६), 'आग ही आग' (१९८७) जैसी मल्टी स्टार्रर फ़िल्में..वे अपनी अदाकारी से छा जाते थे।
मुख्य धारा के साथ कुछ समानांतर फिल्मों में भी शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने अभिनय का जलवा दिखाया। इसमें थी गौतम घोष की सामाजिक बंगाली फ़िल्म 'अंतर्जली जात्रा' (१९८७) और कुमार शाहनी की चेखोव की कहानी पर बनी 'क़स्बा' (१९९०); तो राम गोपाल वर्मा की पोलिटिकल थ्रिलर 'रक्त चरित्र' (२०१०) में उन्होंने फ़िल्म स्टार से बने नेता का किरदार किया। तब तक असल ज़िन्दगी में भी वे बिहार से राजनीती में आए थे!
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'अंतर्जली जात्रा' (१९८७) में शत्रुघ्न सिन्हा! |
Tuesday, 8 December 2020
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'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८) फ़िल्म में शर्मिला टैगोर और धर्मेंद्र! |
ये दोनों 'अनुपमा' (१९६६), 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' (१९६८), 'सत्यकाम', 'यक़ीन' (१९६९) और 'एक महल हो सपनों का' (१९७५) ऐसी लगभग आठ फिल्मों में साथ छा गएँ।
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नहीं बनी फ़िल्म 'देवदास' के सेट पर धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और गुलज़ार! |
Thursday, 3 December 2020
Wednesday, 2 December 2020
Tuesday, 24 November 2020
मशहूर फ़िल्म लेखक सलीम ख़ान..८५!
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बॉलीवुड के मशहूर लेखक सलीम ख़ान साहब! |
अपने बॉलीवुड के मशहूर लेखक सलीम ख़ान साहब की आज ८५ वी सालगिरह!
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'तीसरी मंज़िल' (१९६६) फ़िल्म के गाने में ड्रम बजाते सलीम ख़ान! |
हैंडसम सलीम ख़ान जी ने शुरूआती दौर में कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया। इसमें नासिर हुसैन की 'तीसरी मंज़िल' (१९६६) इस शम्मी कपूर हीरो वाली फ़िल्म में "ओ हसीना जुल्फों वाली.." गाने में वे ड्रम बजाते नज़र आए।
बाद में उन्होंने पटकथा लेखन पर तवज्जोह दिया और लेखक जावेद अख़्तर के साथ अपनी जोड़ी बनाई। फिर इन्होने कई हिट फ़िल्में दी और लेखकों को स्टेटस, ग्लैमर दिया। उन्होंने लिखी 'ज़ंजीर' (१९७३) इस प्रकाश मेहरा की फ़िल्म से अमिताभ बच्चन की 'एंग्री यंग मैन' की इमेज बनी और उसको सफलता मिली।
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लेखक जोड़ीदार जावेद अख़्तर और सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ सलीम ख़ान! |
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अपने बेटे हीरो सलमान ख़ान के साथ लेखक सलीम ख़ान! |
कुछ साल बाद महेश भट्ट की फ़िल्म 'नाम' (१९८६) से सलीम ख़ान अलग से अकेले फ़िल्म लिखने लगे। संजय दत्त को एक नयी पहचान देने वाली यह फ़िल्म अच्छी चली और वे अपने इरादे में सफल हुए। बाद में.. अपने बेटे सलमान ख़ान हीरो वाली 'पत्थर के फूल' (१९९१) और 'मझधार' (१९९६) जैसी सफल फ़िल्मे उन्होंने ही लिखी।
सलीम ख़ान साहब को कुछ अवार्ड्स के साथ 'लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान' प्राप्त हुआ!
उन्हें सालगिरह मुबारक़!!
- मनोज कुलकर्णी
Thursday, 19 November 2020
Saturday, 14 November 2020
दिया दिखाया चाचा नेहरूजी ने..
बच्चों, चलों उनकी राह पर चलें
हमारे भारत को महान बनाये!"
- मनोज 'मानस रूमानी'
हमारे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू साहब को १३१ वे जनमदिन पर सलाम!
यह 'बाल दिन' के रूप में भी मनाया जाता हैं! तो बच्चों को प्यार भरी शुभकामनाएं!!
- मनोज कुलकर्णी
Friday, 13 November 2020
अंदाज़-ए-रफ़ी गातें..!
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ख़ालिद बैग़.. मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में गाते! |
सुखद बात का पता चला की अपने अज़ीज़ गायक मोहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ में गानेवाले पाकिस्तानी सिंगर है..ख़ालिद बैग़! हाल ही में यु ट्यूब पर उनके पर्फोर्मन्सेस के कुछ वीडिओज़ देखनें में आएं।
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रफ़ीसाहब की आवाज़ में गाए अपने अनवर हुसैन! |
जैसे की "मोहब्बत अब तिज़ारत बन गयी है.." ('अर्पण') गानेवाले अनवर हुसैन हो, या "मुबारक हो तुम सबको.." ('मर्द) गानेवाले शब्बीर कुमार; या फिर "तू मुझे कबूल.." ('खुदा गवाह') गानेवाले मोहम्मद अज़ीज़!
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रफ़ीसाहब की आवाज़ में गाए अपने शब्बीर कुमार! |
२००६ में 'रॉयल कॉलेज ऑफ़ लंदन' से 'म्युज़िकोलोजी' में ख़ालिद बैग़ जी ने डिग्री प्राप्त की और २०१० में पाकिस्तान में ही संगीत शास्त्र में एम्.ए. किया। फिर उन्होंने वहां टेलीविज़न शोज में अपने गाने के परफॉर्मन्स सादर किए और बाद में विदेशों में भी वे प्रोग्राम्स करते रहे!
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रफ़ीसाहब की आवाज़ में गा कर गए अपने मोहम्मद अज़ीज़! |
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पाकिस्तानी गायक ख़ालिद बैग़! |
"तुम बिन जाऊ कहाँ के दुनियां में आके कुछ न फिर चाहा.." जैसे ख़ालिद बैग़ जी ने गाएं रफ़ी जी के गानों से ही उनकी इस आवाज़ से मोहब्बत बयां होती है!
रफ़ीसाहब को सलाम और बैग़जी को उनकी आवाज़ में गाने के लिए मुबारक़बाद!
- मनोज कुलकर्णी
Thursday, 12 November 2020
जबरदस्त अदाकार अमजद ख़ान!
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सत्यजीत राय की फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' (१९७७) में अमजद ख़ान! |
"कितने आदमी थे.?"
डायलॉग सुनते ही सामने आता है 'शोले' का गब्बर सिंह याने अमजद ख़ान!
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रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'शोले' (१९७५) में गब्बर अमजद ख़ान! |
भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज कलाकार जयंत जी का यह साहबजादा था। १९५७ में 'अब दिल्ली दूर नहीं' में बतौर बालकलाकार अमजद परदे पर दिखा। फिर १९७३ में चेतन आनंद की 'हिंदुस्तान की कसम' में वो निगेटिव रोल में था। उसने जानेमाने फ़िल्मकार के. आसिफ को उनकी आखरी फिल्म 'लव एंड गॉड' के लिए असिस्ट भी किया।
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संजीव कुमार और रमेश सिप्पी के साथ 'शोले' (१९७५) की शूटिंग में अमजद ख़ान! |
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'याराना' (१९८१) फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और अमजद ख़ान! |
कुछ अच्छे भले किरदार भी अमजद ख़ान ने साकार किए जैसे की १९८० में आयी 'हम से बढ़कर कौन' का भोलाराम और 'दादा' का इंटेंस रोल जिसके लिए उसने पुरस्कार जीता! बाद में 'याराना' (१९८१) में तो वो अमिताभ बच्चन का दिलदार दोस्त था। इसके लिए भी उसे अवार्ड भी मिला।
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शशी कपूर की फ़िल्म 'उत्सव' (१९८४) में वात्सायन बने अमजद ख़ान! |
आख़िर दो फ़िल्में अमजद ख़ान ने निर्देशित भी की, इसमें 'अमीर आदमी, ग़रीब आदमी' (१९८५) कामयाब रही।..'एक्टर्स गिल्ड एसोसिएशन' के वे अध्यक्ष भी रहे!
दुर्भाग्य से बहोत जल्द वे इस दुनिया से रुख़सत हुए।आज उनका ८० वा जनमदिन..इसलिए यह याद!!
- मनोज कुलकर्णी
Monday, 9 November 2020
"न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ!"
'लाल किला' (१९६०) फ़िल्म में यह नज़्म मोहम्मद रफ़ी साहब ने दर्दभरी आवाज़ में गायी थी!
इसे अब ६० साल हो गए। लेकिन जब भी सुनता हूँ आँखें नम होती है!
बहादुर शाह जफ़र साहब की कलम से आयी यह शायरी!
उन्हें यह जहाँ छोड़कर डेढ़सौ से ज्यादा साल हो गए!
परसो उनका स्मृतिदिन था!
उन्हें सलाम!!
- मनोज कुलकर्णी
Sunday, 8 November 2020
Thursday, 5 November 2020
बी.आर.चोपड़ा और 'नया दौर'!
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रंगीन 'नया दौर' के २००७ में प्रदर्शन समय बी.आर.चोपड़ाजी के साथ वैजयंतीमाला, रवि चोपड़ा और दिलीपकुमार! |
अपने भारतीय सिनेमा के दिग्गज फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा जी का आज १२ वा स्मृतिदिन।
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'बीआर फ़िल्म्स' के 'नया दौर' (१९५७) का पोस्टर! |
इस वक्त याद आया उनका शायद आखरी बार कैमरा के सामने आना और वह था उनकी ही क्लासिक 'नया दौर' के रंगीन प्रदर्शन पर!
१९५७ में 'बीआर फ़िल्म्स' द्वारा मूल ब्लैक एंड व्हाइट में निर्माण हुई थी 'नया दौर'। मशीन युग में आदमी की अहमियत को उजाग़र करनेवाली इस फ़िल्म को लिखा था.. अख़्तर मिर्ज़ा और क़ामिल रशीद इन्होंने! गांव के गरीब टाँगेवालें और जमींदार की मोटर के बीच की रेस इसमें उल्लेखनीय रही। "झगड़ा सिर्फ मशीन और आदमी का है बस!" यह इसका तडफदार नायक दिलीप कुमार का संवाद अब भी याद हैं! अजित, जीवन, जॉनी वॉकर, चाँद उस्मानी और वैजयंतीमाला ने इसमें उसके साथ अहम भूमिकाएं निभाई थी।
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'नया दौर' (१९५७) फ़िल्म के "मांग के साथ तुम्हारा.." गाने में दिलीपकुमार और वैजयंतीमाला! |
हालांकि, इस फ़िल्म में पहले मधुबाला ने बतौर नायिका काम शुरू किया था; लेकिन उसके वालिद अताउल्लाह ख़ान की वजह से उसे इसमें से बाहर आना पड़ा। कहा गया है की तब दिलीपकुमार-मधुबाला रिलेशनशिप में थे और यह बात ख़ान साहब को ग़वारा नहीं थी! तब चोपड़ाजी ने नायिका के रूप में लिया वैजयंतीमाला को, जिन्होंने पहले 'देवदास' (१९५५) फ़िल्म में दिलीपकुमार का अच्छा साथ दिया था। यह जोड़ी हिट हो गई और उनका गाना "मांग के साथ तुम्हारा.." आज भी लुभावना लगता है।
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'नया दौर' (१९५७) के "ये देश है
वीर जवानों का.." गाने में दिलीपकुमार और अजित! |
'नया दौर' फ़िल्म बहुत कामयाब रही और दिलीपकुमार को 'सर्वोत्कृष्ट अभिनेता' का पुरस्कार भी मिला। इसे पचास साल पुरे होने के समय २००७ में बी.आर. और पुत्र रवि चोपड़ा जी ने इसे रंगीन बनाकर प्रदर्शित किया।
चोपड़ाजी और उनकी इस लैंडमार्क फ़िल्म को आदरांजली!!
- मनोज कुलकर्णी
Saturday, 31 October 2020
कोहीनूर मिलन!
"दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन.."
१९६० की फ़िल्म 'कोहीनूर' के इस रूमानी गीत की यह क्लासिक फ्रेम है।
यह गीत हमेशा मुझे रूपकात्मक लगता हैं। इसलिए की अपने भारतीय सिनेमा की श्रेष्ठ हस्तियों का यह मिलन हैं..
परदेपर साकार करनेवालें दिलीप कुमार और मीना कुमारी,
उनके लिए साथ गाएं मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर,
तथा शायर शकील बदायुनी और संगीतकार नौशाद अली!
इसको अब ६० साल हुएं; मगर दिलोदिमाग़ पर वैसे ही छाया हुआ हैं।
वाकई वह कोहीनूर मिलन था!
- मनोज कुलकर्णी
दूज के चाँद हुए वे!
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दास्तान-ए-मोहब्बत...उर्दू शायर साहिर लुधियानवी और पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम! |
'कभी कभी' फ़िल्म के शीर्षक गीत में अमिताभ बच्चन महाविद्यालीन जीवन में उभरते शायर के रूप में, राखी की तरफ़ देखकर ख़याल बयां करता हैं "तुझको बनाया गया है मेरे लिए.."
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प्यार का जुनून लिए जवाँ..अमृता कौर (प्रीतम) और साहिर! |
हालांकि अमृताजी साहिर से दो साल सीनियर थी और उनकी शादी (कम उम्र में ही) प्रीतम सिंह से हुई थी! लेकिन प्यार का जूनून दोनों में था। नतीजन साहिर को वह कॉलेज छोड़ना पड़ा। कुछ साल बाद (१९४४ के दरमियान) वे दोनों लाहौर में मिले। तब तक उर्दू शायरी में साहिरजी और पंजाबी साहित्य में अमृताजी अपना मक़ाम हासिल कर चुके थे!
मुल्क़ विभाजन के बाद अमृताजी दिल्ली आई और साहिरजी बम्बई..जहाँ फ़िल्मों के लिए उन्हें गीतलेखन करना था। बाद में ख़तों के जरिए शायराना अंदाज़ में इश्क़ बयां होता रहा। दरमियान अमृताजी शादी के बंधन से अलग हुई थी! लेकिन यहाँ साहिर फ़िल्म क्षेत्र में अपने काम में मसरूफ़ हुए थे।
उस दौरान गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ भी साहिर के प्यार के चर्चे हुए। लेकिन कहाँ गया की यह एकतरफ़ा था। बहरहाल, साहिरजी का सुधाजी ने गाया गीत "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ हैं तुमको..मेरी बात और हैं मैंने तो मोहब्बत की है.." सब साफ बयां कर देता है!..लेकिन अमृताजी इससे कुछ नाराज़ हुई थी और बाद में चित्रकार इमरोज से उनकी नज़दीकियाँ बढ़ी!
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मोहब्बत के ख़ूबसूरत मोड़ पर..साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम! |
वैसे साहिरजी के जीवन के ऐसे नाजुक पल फ़िल्मों में अक्सर आतें रहें। संवेदनशील अभिनेता-निर्देशक गुरुदत्त ने बनायीं क्लासिक फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) के स्रोत साहिर ही थे। उसमें उस कवी की शायरी जिस नाम से प्रसिद्ध होती है वह 'परछाइयाँ' साहिरजी की ही है। बाद में जानेमाने निर्देशक बी.आर.चोपड़ा ने बनायीं फ़िल्म 'गुमराह' (१९६३) का गीत "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.." साहिरजी की दास्तान-ए-मोहब्बत ही बयां करता है!
ख़ैर, इसपर मुझे साहिरजी का ही 'दूज का चाँद' (१९६४) का "महफ़िल से उठ जाने
वालो तुम लोगो पर क्या इलज़ाम.." गाना उन दोनों पर याद आता हैं!
वाकई वे एक दूसरे के लिए दूज का चाँद हो गएँ!!
साहिरजी जल्द यह जहाँ छोड़ गए; तो उनसे मेरी मुलाकात हो नहीं पायी। लेकिन अमृताजी से मिलने का मौका मुझे मिला..जब हम 'जर्नलिज़्म कोर्स' के स्टूडेंट्स १९८८ में दिल्ली गए थे। तब उनसे हुई चर्चा में मैंने दृढ़ता से पूछा "साहिरजी ने "इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर.." नग़्मा क्या आपके लिए लिखा था?" उसपर तो सब चौंक गएँ; लेकिन उन्होंने खुलकर उसका जवाब दिया "हाँ, मैंने मेरी ऑटोबायोग्राफी 'रसीदी टिकट' में इस बारे में लिखा हैं!"
अमृताजी की जन्मशताब्दी पिछले साल हुई और साहिरजी का जन्मशताब्दी साल शुरू हुआ है!
दोनों को सलाम!!
- मनोज कुलकर्णी
Wednesday, 28 October 2020
गुजरात के फेमस आर्टिस्ट्स ब्रदर्स नहीं रहें!
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गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी! |
गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी और उनके बड़े भाई मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी गुज़र जाने के समाचार दुखद हैं!
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मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी! |
तो महेशकुमार कनोडिया जी के संगीत प्रोग्रामस बड़े हिट हुआ करतें थे। इसमें वे दोनों आवाजों में लाजवाब गातें थे! इसके अलावा उन्होंने गुजराती फिल्मों के लिए संगीत भी दिया। इसमें 'जिगर एंड एमी', 'तानारीरी' जैसी फिल्मों के लिए उन्हें अवार्ड्स भी मिलें!
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नरेश कनोडिया फिल्म में! |
इन दो भाईयों का दो दिनों में आगे-पीछे जाना उनमे रहे गहरे प्यार की अनुभूति देता हैं!
इन दोनों को सुमनांजली!!
- मनोज कुलकर्णी
Sunday, 25 October 2020
Tuesday, 20 October 2020
जब रफ़ी साहब से मिले ग़ुलाम अली!
"रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ.."
'ग़ज़ल' (१९६४) फ़िल्म में यह शायराना माहौल में गाकर दिल को छू गए थे मोहम्मद रफ़ी!
अपने भारत के ये मधुर आवाज़ के बेताज बादशाह से पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकी के उस्ताद ग़ुलाम अली जी की मुलाकात की यह तस्वीर!
"दिल में एक लेहेर सी उठी है अभी.." ऐसी ग़ज़लें रूमानी अंदाज़ में गाकर मशहूर हुए ग़ुलाम अली मई-जून १९८० के दरमियान बम्बई में थे। तब रफ़ी साहब ने खुद उन्हें फोन करके मिलने को कहा। इससे रोमांचित हुए ग़ुलाम अली उन्हें मिलने पहुँचे। वहां रफ़ी जी ने उनकी अच्छी मेहमान नवाज़ी की। उस दौरान ग़ुलाम अली जी ने उन्हें कहाँ, "आपको पूरी दुनिया सुनती है और हम तो आपके चाहनेवाले हैं!" उसपर रफ़ी जी ने उन्हें कहाँ, "लेकिन मैं आपको सुनता हूँ!"
इस बात का ज़िक्र ग़ुलाम अली जी ने एक मुलाक़ात में किया था। बाद में उन्होंने अपने भारतीय सिनेमा के लिए भी गाया, जिसकी शुरुआत हुई बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म 'निक़ाह' (१९८२) से। इसकी उनकी "चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद हैं.." यह ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई।
ग़ुलाम अली जी ने तब बताया की रफ़ी जी की गायी "दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ.." ग़ज़ल उन्हें बहुत पसंद है।
मिर्ज़ा ग़ालिब जी की यह ग़ज़ल ख़य्याम साहब ने राग पुरिया धनश्री में
संगीतबद्ध की थी। यह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़ल रफ़ी जी की दर्दभरी आवाज़ की ऊंची
अनुभूति देती हैं!
ग़ुलाम अली जी ख़ुशक़िस्मत थे जो उनका रफ़ी जी से मिलना हुआ। उसी साल कुछ दिन बाद जुलाई में रफ़ी साहब इस दुनिया से रुख़सत हुए!
अब चालीस साल गुज़र गये है!
अलग अंदाज़ में गानेवाले ये दोनों हमारे अज़ीज़!!
- मनोज कुलकर्णी