बी.आर.चोपड़ा की फिल्म 'पति, पत्नी और वो' (१९७८)
में रंजीता, संजीव कुमार और विद्या सिन्हा!
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एक्सक्लूजिव लेख:
'पति, पत्नी और वो'!
- मनोज कुलकर्णी
उस दिन ऐसे वक्त 'विवाहबाह्य संबंध गुनाह नहीं!' ऐसा फैसला आया जब (त्रिकोणीय प्रेम के फ़िल्मकार) यश चोपड़ा जी का जनमदिन था! साथ ही उनके बड़े भाई जानेमाने फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा जी ने इसी विषय पर बनाई फिल्म 'पति, पत्नी और वो' (१९७८) को चालीस साल हो गएँ है! इन चोपड़ा फ़िल्मकार भाइयों के भांजे करन जोहर ने भी ऐसे ही प्लाट पर 'कभी अलविदा ना कहना' (२००६) बनायी जिसे अब एक तप पूरा हो गया! इतना ही नहीं, हाल ही में अपनी ७० वी सालगिरह मना चुके फ़िल्मकार महेश भट्ट ने भी इसी को लेकर (अपने फ़िल्म जीवन के पहलू पर) फ़िल्म 'अर्थ' (१९८२) बनायी थी!
'देवदास' (१९५५) में सुचित्रा सेन और दिलीप कुमार! |
दरसअल ज्यादातर यह ऐसी परिस्थिती में होता है..जब प्यार करनेवालें किसी कारन विवाह स्वरुप मिल नहीं पातें और फिर एक-दूसरे की ओर वह खींचे जातें हैं..जैसे कि बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने १९१७ में लिखी 'देवदास' की अमर दास्ताँ!..इसपर १९३५ की प्रमथेश बरुआ की (जमुना, चन्द्रबती और वह खुद अभिनीत) बांग्ला और १९५५ की बिमल रॉय की (दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला अभिनीत) हिंदी जैसी अभिजात फिल्में बनती आ रहीं हैं! गुरुदत्त की (वह और माला सिन्हा, वहिदा रहमान अभिनीत) श्रेष्ठ फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) का स्रोत भी यही था; लेकिन उसे एक कवि की दृष्टी से यथार्थवादी बनाया गया था। प्रेम की उदात्त भावना ऐसी फिल्मों में प्रतिबिंबित होती हैं!
'माया मेमसाब' (१९९३) में दीपा साही और शाहरुख़ खान! |
'गाईड' (१९६५) में देव आनंद और वहिदा रहमान! |
'एना कैरेनिना' पर भी मूकपट के ज़माने से कई फिल्मे बनी..बोलपट में १९३५ में 'एम्.जी.एम्.' ने इंग्लिश में मशहूर अदाकारा ग्रेटा गार्बो को लेकर बनाई और रूस में अलेक्सांद्र जारखी ने वहां की बेहतरीन अभिनेत्री.. तातिआना समोएलोवा को लेकर बनाई 'एना कैरेनिना' उल्लेखनीय रहीं। तो भारत में तमिल भाषा में के. एस. गोपालकृष्णन ने 'पनक्कारी' नाम से इसे बनाया जिसमें टी. आर. राजकुमारी ने वह भूमिका की थी! 'मादाम बोवारी' और 'एना कैरेनिना' इन दोनों में अपनी मर्जी से खुली ज़िंदगी जीनेवाली विवाहीत स्त्री के अन्य पुरुषों से संबंध को दर्शाया गया!..इस पार्श्वभूमी पर वैशिष्ट्यपूर्ण भारतीय फ़िल्म नमूद करना वाजिब होगा..आर. के. नारायण की कादंबरी पर बनी 'नवकेतन' की 'गाईड' (१९६५)..इसमें "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधे पायल..कोई न रोको दिल की उड़ान को.." इस शैलेन्द्र के गीत द्वारा इसकी नायिका शौहर को छोड़कर एक गाईड के साथ दुनिया में अपनी कला दिखाने चल उठती हैं!..वहिदा रहमान ने यह भूमिका लाजवाब साकार की थी और देव आनंद बने थे उसके गाईड!
'गुमराह' (१९६३) के "चलो एक बार फिर से अज़नबी बन जाएं हम दोनों.."
इस गाने में माला सिन्हा और सुनिल दत्त! |
बहरहाल भारतीय सिनेमा में इस विषय को संयमित और तरलता से दिखाया गया हैं, जिसमें यह परिस्थितियां कुछ वजह से उत्पन्न हुई हैं! जैसे कि ' बॉम्बे टॉकीज' की 'अछुत कन्या' (१९३६) जिसमे जातभेद के कारन न मिल पाएं प्रेमी साथ आने की नाकाम कोशिश करतें हैं! इसमें अशोक कुमार और देविका रानी ने बेहतरिन भूमिकाएं साकार की हैं। तो 'दीदार' (१९५१) में अमीरी और गरीबी के चलते बिछड़े बचपन के साथी लड़की की दूसरे के साथ शादी होने पर तडपतें रहतें हैं..ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार और नर्गिस ने इन भूमिकाओं में जान डाली थी! दूसरी वजह कभी यह भी होती हैं कि मजबूरन अपने प्रेमी/प्रेमिका के अलावा किसी दूसरे से समस्या को हल करने के लिए शादी करनी पड़ती हैं..इसमें स्वाभाविकता से दोनों का प्यार उन्हें एक-दूसरे की ओर खींचता रहता हैं! इस पर जानेमाने फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा की फिल्म 'गुमराह' (१९६३) ने अच्छा प्रकाश डाला था। इसमें नायिका अपनी बहन की मृत्यु के बाद उसके बच्चों की परवरीश के लिए अपने प्रेमी को छोड़ कर बहनोई से शादी करती हैं; लेकिन अपने प्यार को भुला भी नहीं पाती! माला सिन्हा और सुनिल दत्त इसमें प्रेमी बने थे..और ('दीदार' सह) ऐसी फिल्मों में अशोक कुमार हमेशा बिच का तिसरा क़िरदार बखूबी निभाते रहें!
यश चोपड़ा की 'सिलसिला' (१९८१) में रेखा, अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी-बच्चन! |
ऐसी ही उलझी हुई स्थिती को बख़ूबी दर्शाया हैं रूमानी फ़िल्मकार यश चोपड़ा ने अपनी फ़िल्म 'सिलसिला' (१९८१) में..जिसमे नायक भाई गुजर जाने पर मज़बूरन उसकी बेवा पत्नी से अपनी प्रेमिका को छोड़ कर शादी करता हैं; लेकिन प्यार का जुनून इतना हावी होता हैं की अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी से बाहर आकर वह प्रेमी रंगरलियाँ मनातें हैं। इसमें वास्तविकता में भी इसी वजह से चर्चित सुपरस्टार अमिताभ बच्चन-रेखा और जया भादुड़ी-बच्चन इन किरदारों में थे..यह कमाल सिर्फ यशजी ही कर सकते थे!
'संगम' (१९६४) में राज कपूर, वैजयंतीमाला और राजेंद्र कुमार..प्रेम त्रिकोण! |
'आउट ऑफ़ आफ्रीका' (१९८५) में मेरिल स्ट्रीप और रोबर्ट रेडफोर्ड! |
होंगकोंग के वोंग कर-वाई की 'इन द मूड फॉर लव' (२००२) में मैगी चेउंग और टोनी लेउंग! |
फ़िल्म 'मर्डर' (२००४) में इमरान हाश्मी और मल्लिका शेरावत! |
महेश भट्ट की 'अर्थ' (१९८२) में (दिवंगत) स्मिता पाटील, शबाना आज़मी और कुलभूषण खरबंदा! |
करन जोहर की फिल्म 'कभी अलविदा ना कहना' (२००६) में
शाहरुख़ खान, प्रीति ज़िंटा, अभिषेक बच्चन और रानी मुख़र्जी-चोपड़ा!
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विवाहबाह्य संबंध के बारे में (सकारात्मक फ़ैसला आने के बाद)..साहित्य-कला और सिनेमा में पड़ा प्रतिबिंब यहाँ शब्दबद्ध किया! अब इस पर गंभीरता से सोचते हुए कुछ सवाल दिमाख में आतें हैं की..वाकई में विवाह एक बंधन तो नहीं ?, एक-दूसरे पर हक़ जमाना क्या ठीक हैं?, कोई किसीका मालीक क्यूँ हो?, रिश्तें में प्यार, सम्मान न हो तो कोई कहीं (भावनिक ही) प्यार तलाशे तो गलत क्या? दुनिया बहोत आगे गई हैं और इक्कीसवी सदी में स्त्री-पुरुष बराबर तरीके से अपना जीवन अपनी ख़ुशी से जी सकते हैं! लेकिन हां..ज़िम्मेदारी से सोच समझकर!!
- मनोज कुलकर्णी
('चित्रसृष्टी', पुणे)
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