Friday 5 October 2018

बी.आर.चोपड़ा की फिल्म 'पति, पत्नी और वो' (१९७८) 
में रंजीता, संजीव कुमार और विद्या सिन्हा!

एक्सक्लूजिव लेख:


'पति, पत्नी और वो'!



- मनोज कुलकर्णी



उस दिन ऐसे वक्त 'विवाहबाह्य संबंध गुनाह नहीं!' ऐसा फैसला आया जब (त्रिकोणीय प्रेम के फ़िल्मकार) यश चोपड़ा जी का जनमदिन था! साथ ही उनके बड़े भाई जानेमाने फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा जी ने इसी विषय पर बनाई फिल्म 'पति, पत्नी और वो' (१९७८) को चालीस साल हो गएँ है! इन चोपड़ा फ़िल्मकार भाइयों के भांजे  करन जोहर ने भी ऐसे ही प्लाट पर 'कभी अलविदा ना कहना' (२००६) बनायी जिसे अब एक तप पूरा हो गया! इतना ही नहीं, हाल  ही में अपनी ७० वी सालगिरह मना चुके फ़िल्मकार महेश भट्ट ने भी इसी को लेकर (अपने फ़िल्म जीवन के पहलू पर) फ़िल्म 'अर्थ' (१९८२) बनायी थी!
'देवदास' (१९५५) में सुचित्रा सेन और दिलीप कुमार!


दरसअल ज्यादातर यह ऐसी परिस्थिती में होता है..जब प्यार करनेवालें किसी कारन विवाह स्वरुप मिल नहीं पातें और फिर एक-दूसरे की ओर वह खींचे जातें हैं..जैसे कि बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने १९१७ में लिखी 'देवदास' की अमर दास्ताँ!..इसपर १९३५ की प्रमथेश बरुआ की (जमुना, चन्द्रबती और वह खुद अभिनीत) बांग्ला और १९५५ की बिमल रॉय की (दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला अभिनीत) हिंदी जैसी अभिजात फिल्में बनती आ रहीं हैं! गुरुदत्त की (वह और माला सिन्हा, वहिदा रहमान अभिनीत) श्रेष्ठ फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) का स्रोत भी यही था; लेकिन उसे एक कवि की दृष्टी से यथार्थवादी बनाया गया था। प्रेम की उदात्त भावना ऐसी फिल्मों में प्रतिबिंबित होती हैं!
'माया मेमसाब' (१९९३) में दीपा साही और शाहरुख़ खान!
विदेशी कथाकारों ने तो इस विषय को अधिक खुलेपन से अपनी कथाओं में उजागर किया हैं।..इस में फ़्रांसीसी गुस्ताव फ्लोवेर की १८५६ में लिखी 'मादाम बोवारी' और रूस के लियो टॉलस्टॉय की १८७७ में लिखी 'एना कैरेनिना' मुख्यतः इसपर रौशनी डालती हैं! 'मादाम बोवारी' पर तो विश्व सिनेमा में कई फ़िल्में बनी.. जिसमें मशहूर फ़्रांसीसी फ़िल्मकार जां रेन्वा ने १९३४ में वैलेंटाइन टेस्सी को लेकर और क्लॉद शाब्रॉल ने १९९१ में इजाबेल हूप्पर्ट को लेकर बनायीं हुई उल्लेखनीय थी। यहाँ भारत में भी फ़िल्मकार केतन मेहता ने १९९३ में दीपा साही को लेकर इसे हिंदी में 'माया मेमसाब' के रूप में पेश किया। 
'गाईड' (१९६५) में देव आनंद और वहिदा रहमान!

'एना कैरेनिना' पर भी मूकपट के ज़माने से कई फिल्मे बनी..बोलपट में १९३५ में 'एम्.जी.एम्.' ने इंग्लिश में मशहूर अदाकारा ग्रेटा गार्बो को लेकर बनाई और रूस में अलेक्सांद्र जारखी ने वहां की बेहतरीन अभिनेत्री.. तातिआना समोएलोवा को लेकर बनाई 'एना कैरेनिना' उल्लेखनीय रहीं। तो भारत में तमिल भाषा में के. एस. गोपालकृष्णन ने 'पनक्कारी' नाम से इसे बनाया जिसमें टी. आर. राजकुमारी ने वह भूमिका की थी! 'मादाम बोवारी' और 'एना कैरेनिना' इन दोनों में अपनी मर्जी से खुली ज़िंदगी जीनेवाली विवाहीत स्त्री के अन्य पुरुषों से संबंध को दर्शाया गया!..इस पार्श्वभूमी पर वैशिष्ट्यपूर्ण भारतीय फ़िल्म नमूद करना वाजिब होगा..आर. के. नारायण की कादंबरी पर बनी 'नवकेतन' की 'गाईड' (१९६५)..इसमें "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधे पायल..कोई न रोको दिल की उड़ान को.." इस शैलेन्द्र के गीत द्वारा इसकी नायिका शौहर को छोड़कर एक गाईड के साथ दुनिया में अपनी कला दिखाने चल उठती हैं!..वहिदा रहमान ने यह भूमिका लाजवाब साकार की थी और देव आनंद बने थे उसके गाईड!
'गुमराह' (१९६३) के "चलो एक बार फिर से अज़नबी बन जाएं हम दोनों.." 
इस गाने में माला सिन्हा और सुनिल दत्त!


बहरहाल भारतीय सिनेमा में इस विषय को संयमित और तरलता से दिखाया गया हैं, जिसमें यह परिस्थितियां कुछ वजह से उत्पन्न हुई हैं! जैसे कि ' बॉम्बे टॉकीज' की 'अछुत कन्या' (१९३६) जिसमे जातभेद के कारन न मिल पाएं प्रेमी साथ आने की नाकाम कोशिश करतें हैं! इसमें अशोक कुमार और देविका रानी ने बेहतरिन भूमिकाएं साकार की हैं। तो 'दीदार' (१९५१) में अमीरी और गरीबी के चलते बिछड़े बचपन के साथी लड़की की दूसरे के साथ शादी होने पर तडपतें रहतें हैं..ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार और नर्गिस ने इन भूमिकाओं में जान डाली थी! दूसरी वजह कभी यह भी होती हैं कि मजबूरन अपने प्रेमी/प्रेमिका के अलावा किसी दूसरे से समस्या को हल करने के लिए शादी करनी पड़ती हैं..इसमें स्वाभाविकता से दोनों का प्यार उन्हें एक-दूसरे की ओर खींचता रहता हैं! इस पर जानेमाने फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा की फिल्म 'गुमराह' (१९६३) ने अच्छा प्रकाश डाला था। इसमें नायिका अपनी बहन की मृत्यु के बाद उसके बच्चों की परवरीश के लिए अपने प्रेमी को छोड़ कर बहनोई से शादी करती हैं; लेकिन अपने प्यार को भुला भी नहीं पाती! माला सिन्हा और सुनिल दत्त इसमें प्रेमी बने थे..और ('दीदार' सह) ऐसी फिल्मों में अशोक कुमार हमेशा बिच का तिसरा क़िरदार बखूबी निभाते रहें!
यश चोपड़ा की 'सिलसिला' (१९८१) में रेखा, अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी-बच्चन!

ऐसी ही उलझी हुई स्थिती को बख़ूबी दर्शाया हैं रूमानी फ़िल्मकार यश चोपड़ा ने अपनी फ़िल्म 'सिलसिला' (१९८१) में..जिसमे नायक भाई गुजर जाने पर मज़बूरन उसकी बेवा पत्नी से अपनी प्रेमिका को छोड़ कर शादी करता हैं; लेकिन प्यार का जुनून इतना हावी होता हैं की अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी से बाहर आकर वह प्रेमी रंगरलियाँ मनातें हैं। इसमें वास्तविकता में भी इसी वजह से चर्चित सुपरस्टार अमिताभ बच्चन-रेखा और जया भादुड़ी-बच्चन इन किरदारों में थे..यह कमाल सिर्फ यशजी ही कर सकते थे!
'संगम' (१९६४) में राज कपूर, वैजयंतीमाला और राजेंद्र कुमार..प्रेम त्रिकोण!
यहाँ ऐसी परिस्थिती पैदा होने की तीसरी वजह यह भी होती हैं की दो भाई या दोस्त एक ही लड़की पर फ़िदा होतें हैं..और उसे हमेशा उसमें से अपनी पसंद से समझौता करके किसी वजह से दूसरे की होना पड़ता हैं। यह चित्र बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्में.. अशोक कुमार की दोहरी भूमिकाएंवाली 'अफ़साना' (१९५१) और दिलीप कुमार की दोहरी भूमिकाएंवाली 'दास्तान' (१९७२) में दिखाई दिया, जिसमें दो भाइयों की एक ही महबूबा रहती हैं! तो 'आरके' की 'संगम' (१९६४) में  दोस्तों का दिल एक ही पर रहता हैं..ऐसे में एक से शादी करके दूसरे की ओर खींची जानेवाली यह प्रेमिका उलझन में पड़ती हैं और आखिर में दोनों को सुनाती हैं! खुद राज कपूर और राजेंद्र कुमार के साथ वैजयंतीमाला ने यह भूमिका निभाई थी।. हालांकि इससे पहले जानेमाने फ़िल्मकार मेहबूब खान अपनी अभिजात 'अंदाज़' (१९४९) में यह पेश कर चुके थे..जिसमें दिलीप कुमार, नर्गिस और राज कपूरही इस प्रेम त्रिकोण में थे!

'आउट ऑफ़ आफ्रीका' (१९८५) में मेरिल स्ट्रीप और रोबर्ट रेडफोर्ड!
विदेशी फिल्मों में तो इस विषय को अधिक व्यापकता से दर्शाया गया. इसमें १९१७ की रशिअन रेवुलेशन की पार्श्वभूमी पर रूसी उपन्यासकार बोरिस पास्टरनाक की कहानी पर बनी 'डॉक्टर ज़िवागो' (१९६५) इस डेविड लीन निर्देशित फिल्म में राजनैतिक मुत्सद्दी की पत्नी से प्यार हुए डाक्टर की कथा को रोमहर्षक फ़िल्माया गया है!..मशहूर अभिनेता ओमर शरीफ ने वह शिर्षक भूमिका निभाई थी। तो डैनिश लेखिका केरेन ब्लिक्सेन की कहानी पर निर्देशक सिडने पोलक ने बनायी ऑटोबायोग्राफिकल फिल्म 'आउट ऑफ़ आफ्रीका' (१९८५) में बिजनेसमैन पति ने विश्वासघात करनेपर आफ्रीका के जंगल में मुलाकात हुए शिकारी से प्रेमसंबंध प्रस्थापित करनेवाली मुक्त विचारों की स्त्री को दिखाया हैं। मेरिल स्ट्रीप और रोबर्ट रेडफोर्ड इसके प्रमुख भूमिकाओं में थे! 

होंगकोंग के वोंग कर-वाई की 'इन द मूड फॉर लव' (२००२) में मैगी चेउंग और टोनी लेउंग!
इसके बाद एड्रिअन लीन ने बनाए साइकोलॉजिकल थ्रिलर 'फेटल अट्रैक्शन' (१९८७) में शादीशुदा आदमी का वीकएंड में एक परस्त्री से अफेयर होना और उससे पैदा हुई उलझन को दिखाया गया! माइकल डगलस और ग्लेंन क्लोज ने इसमें भूमिकाएं की थी। तो रॉबर्ट जेम्स वालर की लोकप्रिय कादंबरी पर बनी 'दी ब्रिजेस ऑफ़ मैडिसन' (१९९५) भी युद्ध की पार्श्वभूमी पर थी.. जिसमें इटालियन विवाहिता नेशनल जियोग्राफिक के फोटोग्राफर के प्यार में पड़ती हैं! मशहूर अभिनेता क्लिंट ईस्टवूड ने इसे निर्देशित किया था और खुद ने बेहतरीन अदाकारा मेरिल स्ट्रिप के साथ इसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी। फिर एड्रिअन लीन की ही फिल्म 'अनफेथफुल' (२००२) में आँधी में अजनबी के यहाँ ठहरी विवाहिता का उससे हुआ अफेयर फैमिली लाइफ पर कैसे बुरा असर कर देता हैं यह दिखाया हैं..रिचर्ड गेर, डिएन लेन और ओलिवियर मार्टिनेज़ ने इसमें भूमिकाएं की थी। तो आशियाई सिनेमा में इस विषय को बख़ूबी फ़िल्माया गया..इसका अच्छा उदहारण हैं होंगकोंग के जानेमाने फ़िल्मकार वोंग कर-वाई की 'इन द मूड फॉर लव' (२००२)..अपनी जोड़ीदारों के विवाहबाह्य संबंधों के बारे में पता चलने पर दो (स्त्री-पुरुष) पड़ौसी एक दूसरें में अच्छा भावनिक नाता निर्माण करतें हैं..यह इसका कथासूत्र था। इसमें वहाँ की मशहूर अदाकारा मैगी चेउंग और टोनी लेउंग ने यह भूमिकाएं बेहतरीन साकार की हैं।
फ़िल्म 'मर्डर' (२००४) में इमरान हाश्मी और मल्लिका शेरावत!

कभी भूल भी हो सकती हैं विवाहबाह्य संबंधों में, तो कभी होती हैं बेवफाई! बॉलीवुड की फिल्मोंने तो अकसर इसे दिखाया हैं। इसमें एक तरफ थी 'एक ही भूल' (१९८१) जिसमें जितेंद्र, रेखा और शबाना आज़मी ने भूमिकाएँ की थी। दूसरी तरफ बेवफाई पर रोशनी डालनेवाली फ़िल्में 'मर्डर' (२००४) तक उत्तान बनती रहीं हैं! तो कभी डेविड धवन जैसे 'घरवाली बाहरवाली' (१९९८) सिर्फ फ़ार्स के लिएं बनातें हैं!

महेश भट्ट की 'अर्थ' (१९८२) में (दिवंगत) स्मिता पाटील, शबाना आज़मी और कुलभूषण खरबंदा!
ऐसे में अच्छी कंटेंट और निर्देशन-अभिनय की फ़िल्में भी ऐसे विषय लेकर आयी..जिसमें कुछ ग्लैमर की दुनिया की सच्चाई (वास्तविकतासे) सामने लायी! इसमें महेश भट्ट की 'अर्थ' (१९८२) उनकी जीवन से तालुक़ रखनेवाली थी! फिल्म निर्देशक का अपनी फिल्म की हीरोइन के साथ अफेयर होना और फिर पत्नि-प्रेयसी में उलझना ऐसे इसके प्लाट में शबाना आज़मी और (दिवंगत) स्मिता पाटील यह दो मँजी हुई अभिनेत्रियाँ सामने आयी और कुलभूषण खरबंदा ने वह उलझी व्यक्तिरेखा निभायी। इस चर्चित फिल्म को राष्ट्रीय सम्मान भी मिला! ऐसी ही कहानी लेकर आयी थी विनोद पांडे निर्देशित 'यह नज़दीकियाँ' (१९८२) जिसमें एड फिल्ममेकर का अपनी मॉडल से अफेयर होना और उसकी पत्नी को उसे छोड़ के चले जाना ऐसा यथार्थ चित्र दिखाया गया! इसमें मार्क ज़ुबेर, शबाना आज़मी और परवीन बाबी ने भूमिकाएं की थी। सन २००० के बाद भारतीय सिनेमा में तकनिकी तौर पर काफी परिवर्तन आया.. डिजिटल के साथ एपिसोडिक स्टाइल में फ़िल्में बनने लगी। इसमें अनुराग बासु की 'लाइफ इन ए..मेट्रो' (२००७) जैसे समकालिन समाज जीवन का एक कोलाज था!..बम्बई जैसे महानगर में जीने के लिए संघर्ष, स्पर्धा और उच्चभ्रू समाज में नीति मूल्यों का होता अधःपतन इसपर इसमें रोशनी डाली गयी!
करन जोहर की फिल्म 'कभी अलविदा ना कहना' (२००६) में 
शाहरुख़ खान, प्रीति ज़िंटा, अभिषेक बच्चन और रानी मुख़र्जी-चोपड़ा!


विवाहबाह्य संबंध के बारे में (सकारात्मक फ़ैसला आने के बाद)..साहित्य-कला और सिनेमा में पड़ा प्रतिबिंब यहाँ शब्दबद्ध किया! अब इस पर गंभीरता से सोचते हुए कुछ सवाल दिमाख में आतें हैं की..वाकई में विवाह एक बंधन तो नहीं ?, एक-दूसरे पर हक़ जमाना क्या ठीक हैं?, कोई किसीका मालीक क्यूँ हो?, रिश्तें में प्यार, सम्मान न हो तो कोई कहीं (भावनिक ही) प्यार तलाशे तो गलत क्या? दुनिया बहोत आगे गई हैं और इक्कीसवी सदी में स्त्री-पुरुष बराबर तरीके से अपना जीवन अपनी ख़ुशी से जी सकते हैं! लेकिन हां..ज़िम्मेदारी से सोच समझकर!!


- मनोज कुलकर्णी 
('चित्रसृष्टी', पुणे)

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