Tuesday 1 March 2022

वह नज़ाकत से इज़हार-ए-इश्क़!

 
'मेरे मेहबूब' (१९६३) के इस शीर्षक गीत में राजेंद्र कुमार और साधना!
 
"भूल सकती नहीं आँखे वो सुहाना मंज़र
जब तेरा हुस्न मेरे इश्क़ से टकराया था
और फिर राह में बिखरे थे हज़ारो नग्मे..."

'अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के शायराना माहौल में शेरवानी पहने महबूब की बुर्का-हिजाब में आती माशूका से पहली मुलाक़ात को चित्रित करता यह रूमानी दृश्य!
एच. एस. रवैल जी की मेरी पसंदीदा क्लासिक फ़िल्म 'मेरे मेहबूब' (१९६३) में जुबिली स्टार राजेंद्र कुमार और ख़ूबसूरत साधना ने उसी नज़ाक़त से साकार किया था..जिसमें शकील बदायुनी की उस रूमानी शायरी को नौशाद जी के संगीत में मोहम्मद रफ़ी जी ने उसी प्यार भरे अंदाज़ में पेश किया था।

'मेहबूब की मेहँदी' (१९७१) के "ये जो चिलमन हैं.." गीत में लीना चंदावरकर और राजेश खन्ना!
हाल ही में जन्मशताब्दी हुए, रूमानी मुस्लिम सोशलस के लिए मशूहर रवैल जी की फ़िल्मों की ऐसी शायराना हुस्न-ओ-इश्क़ की नज़ाकत मेरी ख़ास पसंदीदा रहीं हैं। जैसे की उनकी 'मेहबूब की मेहँदी' (१९७१) लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने संगीत दी फ़िल्म में आनंद बख़्शी जी ने लिखे ऐसे ही रूमानी गीत-दृश्य "ये जो चिलमन हैं.." को खानदानी मुस्लिम पहनावे में सुपरस्टार राजेश खन्ना और लीना चंदावरकर ने उसी अंदाज़ में साकार किया था। इसमें "परदा जो हट गया रुख़-ए-महताब से." ऐसी नज़ाकत से पूछती प्यारीसी माशूका और उसको "हुस्न और इश्क के दरमियाँ ये क्यों रहे.." रफ़ी जी आवाज़ में कहनेवाला महबूब लाजवाब थें।

रवैल जी की फ़िल्मों के अलावा और भी कुछ मुस्लिम सोशलस में इस तरह से नज़ाक़त से शायराना इश्क़ बयां हुआ। (इस विषय पर मेरे लेखों की एक मालिका यहाँ साल पहले आयी थी।)

'मेरे हुज़ूर' (१९६८) के "रुख़ से ज़रा नक़ाब उठा दो.." गीत में ख़ूबसूरत माला सिन्हा!
अपने जानेमाने अभिनेता-निर्देशक.. गुरुदत्त जी की लखनऊ की सरज़मीं पर चित्रित 'चौदहवीं का चाँद' (१९६०) फ़िल्म में इसी लिबास में मुख़ातिब हुई वहीदा रहमान से वे इसी तरह तहज़ीब से अपना प्यार जताते हैं। फिर 'ग़ज़ल' (१९६३) फ़िल्म में सुनील दत्त और महज़बीं यानी मीना कुमारी ऐसे ही पहनावें में अपना इश्क़ शायराना अंदाज़ में बयां करतें हैं। बाद में विनोद कुमार की 'मेरे हुज़ूर' (१९६८) में हसरत जयपुरी जी ने लिखे "रुख़ से ज़रा नक़ाब उठा दो मेरे हुज़ूर.." इस रूमानी शीर्षक-गीत से ख़ूबसूरत माला सिन्हा को दरख़्वास्त करता जंपिंग जैक जितेंद्र भी उसी लहज़े में बयां हुआ था। शंकर-जयकिशन जी के संगीत में रफ़ी जी ने यह गाया भी ख़ूब था।

'कोहिनूर' (१९६०) के "दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन.." गीत में दिलीपकुमार और मीना कुमारी!
बहरहाल, परदा हटा कर और नक़ाब उठा कर माशूका का रुख़/हुस्न देखने का हक़ सिर्फ़ उसके महबूब/शौहर को होता है यह अपनी फ़िल्मों ने बख़ूबी दिखाया हैं!
जैसे की (मैंने पहले जिसपर लिखा है वह अभिनय और संगीत के सब दिग्गजों की) 'कोहिनूर' (१९६०) फ़िल्म का "दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन.." गीत-दृश्य! शकील बदायुनी जी ने ही लिखे इस को नौशाद जी के संगीत में मोहम्मद रफ़ी जी और लता मंगेशकर जी ने उसी तरलता से गाया हैं। इसमें अपने अदाकारी के शहंशाह यूसुफ़साहब..दिलीपकुमार जी और अपनी अदाकारी की मलिका महज़बीन..मीना कुमारी जी को कहतें हैं "तोड़ दे तोड़ दे परदे का चलन आज की रात.. मुस्कुराता है उम्मीदों का चमन आज की रात.."
फिर रवैल जी की ही फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' (१९८२) में ऋषि कपूर और टीना मुनीम का साहिर लुधियानवी जी के गीत में बयां होना "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता.."

रूमानी मुस्लिम सोशलस की वह नफ़ासत..और नज़ाकत में इश्क़ का इज़हार करने का अंदाज़ हम जैसे शायराना रूमानी रहे शख़्स को हमेशा लुभाता रहां हैं!

- मनोज कुलकर्णी

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