Saturday 10 October 2020

एक्सक्लुजिव्ह लेख:


मानसिक अस्वस्थ्यता का सिनेमा में चित्रण!

'पेड़गावचे शहाणे' (१९५२) में अभिनेता-निर्देशक राजा परांजपे!
आज 'जागतिक मानसिक स्वास्थ्य दिन'! इस विषय पर जागृति की बहोत आवश्यकता है। यह बीमारी (अलग-अलग तरीके से) पहले से रहती है, कभी मस्तिष्क में रसायनों के बदल से भी होती है ऐसा कहते है; तो कभी कुछ वजहों से पड़े सदमों से उत्पन होती है। सिनेमा में हुए इसके चित्रण का यहाँ संक्षिप्त में विवेचन कर रहा हूँ।

इसमें मुझे सबसे पहले याद आती हैं मराठी सिनेमा के जानेमाने अभिनेता-निर्देशक राजा परांजपे ने १९५२ में बनाई फिल्म 'पेड़गावचे शहाणे', जिसमें उन्होंने खुद शीर्षक भूमिका साकार की थी। किसी ज़माने में सर्जन रह चुके यह शहाणे अपनी प्रियतमा पर असफल ऑपरेशन की वजह से दिमाग़ का संतुलन खो बैठते हैं और कैंची देखने पर उन्हें पागलपन का दौरा पड़ता रहता है। लेकिन वो एक परिवार में चाचा बनके आते है और सब सुधारने के प्रयास करते है। यह व्यक्तिरेखा परांजपेजी ने बख़ूबी साकार की थी और इसका उनका गाना "झांजीबार झांजीबार.." कमाल का था। इस फ़िल्म का हिंदी संस्करण 'चाचा चौधरी' (१९५३) नाम से आया!

हिंदी फ़िल्म 'खिलौना' (१९७०) में संजीव कुमार और मुमताज़.
इसके बाद मुझे याद आती है फेमस एल. व्ही. प्रसाद की हिंदी फ़िल्म 'खिलौना' (१९७०) जो तेलुगु फ़िल्म 'पुनर्जन्म' (१९६३) की रीमेक थी, जिसमे ए नागेश्वरा राव ने प्रमुख भूमिका की थी। हालांकि दोनों फ़िल्में जानेमाने लेखक गुलशन नन्दा के उपन्यास 'पत्थर के होंठ' पर आधारित थी। तो चन्दन वोहरा निर्देशित 'खिलौना' में अपने बेहतरीन कलाकार संजीव कुमार ने इस तरह की प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसमें विजयकुमार नामक कवि जिस लड़की से प्यार करता है, वो दूसरी जगह शादी होने के कारन आत्महत्या करती है। यह देखकर वो पागल हो जाता है और बाद में कोठे की तवायफ़ चाँद उसकी बीवी बनके आकर उसे सुधार लेती है। संजीव कुमार और मुमताज़ ने यह व्यक्तिरेखाएँ लाजवाब साकार की हैं। इसके शीर्षक गाने में पागल के किरदार में संजीवकुमार दिल को छू लेते हैं!

'ज्योति' (१९८१) फ़िल्म में जितेंद्र और हेमा  मालिनी!
उसी साल असित सेन निर्देशित हिंदी फ़िल्म 'ख़ामोशी' में तबके सुपरस्टार राजेश खन्ना मानसिक स्वास्थ खो बैठे पेशंट की व्यक्तिरेखा में दिखे। यह लेखक-कवि अपनी प्रेमिका की बेवफाई की वजह से 'एक्यूट मेनिया' का शिकार हो जाता है। फिर नर्स बनी वहीदा रेहमान उसे अपने प्यार से सुधार लेती है। "तुम पुकार लो.." ऐसे गंभीर गाने में बड़े संयत तरीके से काका राजेश ने वह व्यक्तिरेखा साकार की।

इसके बाद अपनी फ़िल्मों में ऐसे कैरेक्टर्स नज़र आएँ। जैसे १९८१ में प्रमोद चक्रवर्ती ने बनाई 'ज्योति', यह भी तेलुगु फ़िल्म 'अर्धांगी' (१९५५) की हिंदी रीमेक थी, जिसमे ए. नागेश्वरा राव ही प्रमुख भूमिका में थे और साथ में थी सावित्री। इन फ़िल्मों का मूल मणिपाल बैनर्जी का बंगाली उपन्यास 'स्वयंसिद्धा' थी! ख़ैर फ़िल्म 'ज्योति' में प्रॉपर्टी की वजह से सौतेले भाई ने नशे की दवा देकर पागल किए व्यक्ति की भूमिका जितेंद्र ने निभाई। उसकी बीवी गौरी की भूमिका में थी हेमा मालिनी, जो उसके सौतेले भाई के विरुद्ध खड़ी होकर पति को सुधारती हैं। जितेंद्र और हेमा दोनों ने अपनी व्यक्तिरेखाएँ इसमें पूरी समझदारी से बख़ूबी साकार की थी।

'पैज लग्नाची' (१९९८) में वर्षा उसगांवकर और अविनाश नारकर.
बहोत सालों बाद आयी इस तरह की मराठी फ़िल्म थी 'पैज लग्नाची' (१९९८) जिसे यशवंत भालकर ने निर्देशित की थी। इसमें एक देहाती पागल से शादी करके उसे सुधारने का चैलेंज एक मॉडर्न लड़की लेती है और उसमे आखिर सफल होती है ऐसा दिखाया गया। अविनाश नारकर और वर्षा उसगांवकर ने ये भूमिकाएँ बेहतरीन साकार की। इस फ़िल्म को राज्य पुरस्कार भी मिले!
 
अमरिकी फ़िल्म 'रेन मैन' (१९८८) में फेमस टॉम क्रूज और ग्रेट डस्टिन हॉफमन!
अंग्रेजी में भी मानसिक स्वास्थ विषय पर अच्छी फ़िल्में बनी, जैसे की ऑटिज़्म को लेकर 'रेन मैन' (१९८८), एंग्जायटी पर 'व्हॉट अबाउट बॉब' (१९९१), ओसीडी से 'एज गुड एज इट गेट्स' (१९९७), स्किज़ोफ्रेनिआ पर प्रकाश डालती 'ए ब्यूटीफुल माइंड' (२००१) और डिप्रेशन को लेकर 'ए स्केलेटन ट्विन्स' (२०१४)..इसमें बैरी लेविंसन की 'रेन मैन' तो दिल को छू गयी। इसमें ऑटिस्टिक रेमंड के नाम उसके पिता ने छोड़ी बड़ी एस्टेट हासिल करने के लिए उसके सौतेले भाई के प्रयासों को दिखाया है। मेथड एक्टिंग के लिए मशहूर डस्टिन हॉफमन ने इसमें रेमंड की भूमिका लाजवाब साकार की; तो हैंडसम टॉम क्रूज इसमें उसके सौतेले भाई के निगेटिव्ह रोल में नज़र आए। इसके लिए फ़िल्म, निर्देशक और हॉफमन को 'ऑस्कर' अवार्ड्स मिले! इसके बाद इस विषय पर एक इंटेलेक्चुअल फ़िल्म की दृष्टी से 'ए ब्यूटीफुल माइंड' अपना प्रभाव दिखा कर गयी! अमरिकी गणितज्ञ जॉन नैश के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म में रसेल क्रोव ने यह प्रमुख भूमिका पूरी समझदारी से बख़ूबी साकार की थी। रॉन हॉवर्ड निर्देशित इस फ़िल्म को भी 'ऑस्कर' मिला!
'ए ब्यूटीफुल माइंड' (२००१) में रसेल क्रोव.

ज्यादातर मानसिक स्वास्थ्य से निगडित फ़िल्मों में आप देखें तो, उसमे परिस्थति और कभी प्यार जैसी नाजुक बातें भी इसकी वजह दिखाई गयीं हैं। इस सिलसिले में मुझे फेस्टिवल में देखी इस्राएली फ़िल्म 'सर्कस पलेस्टाइन' (१९९८) याद हैं। एयल हलफ़ोन निर्देशित इस सटीरिक फ़िल्म में ऐसा दिखाया है की एक लड़की के प्यार में पागल हुआ आर्टिस्ट ठीक होकर जब लौटता है तो..देखता है उसकी माशुका किसी और के इश्क़ में है। तब ये सोचता है 'यहाँ सयाने लोगों में पागल होने से बेहतर है पागलखाने में सयाना होकर रहना!' और लौटने लगता हैं!

बहरहाल, हम किसी भी वजह से अपना मानसिक संतुलन न खोएं और स्वास्थ्य बनाएं रखें!!

- मनोज कुलकर्णी

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