विशेष लेख:
फ़ारूख़ शेख़ ..शानदार शख़्सियत!
- मनोज कुलकर्णी
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| भारतीय समानांतर सिनेमा के संवेदनशील तथा शानदार अभिनेता..फ़ारूक़ शेख़! |
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| "फिर छिड़ी रात..बात फूलों की.." 'बाज़ार' (१९८२) में सुप्रिया पाठक और फ़ारूख़ शेख़! |
बात फूलों की.."
मख़दूम मोइनुद्दीनजी की ग़ज़ल 'बाज़ार' (१९८२) इस साग़र सरहदी की फिल्म में सुप्रिया पाठक के साथ उतनी ही रूमानी तरीक़े से साकार की थी फ़ारूख़ शेख़ ने!
भारतीय समानांतर सिनेमा के संवेदनशील तथा शानदार अभिनेता फ़ारूक़ शेख़ जी आज होते तो उनकी ७० वी सालगिरह मनायी जाती थी!
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| "सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ हैं."..'गमन' (१९७८) में फ़ारूख़ शेख़. |
कॉलेज के दिनों से ही 'इप्टा' के जरिए थिएटर से जुड़े रहे फ़ारूख़ शेख़ को जानेमाने निर्देशक एम्. एस. सैथ्यु ने १९७३ में अपनी पहली फ़िल्म 'गरम हवा' के लिए चुना! पार्टीशन की पृष्ठभूमी पर बनी यह महत्वपूर्ण फ़िल्म बाद में मानदंड साबित हुई। यहीं से फ़ारूख़ जी का कला तथा समानांतर फिल्मों का सफर शुरू हुआ..!
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| रोमैंटिक म्यूजिकल 'नूरी' (१९७९) में फ़ारूख़ शेख़. और पूनम ढ़िल्लो! |
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| 'चश्मे बद्दूर' (१९८१) में फ़ारूख़ शेख़, रवि बासवानी और राकेश बेदी! |
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| परदे पर जमीं जोड़ी!..'साथ साथ (१९८२) में दीप्ति नवल और फ़ारूख़ शेख़! |
'चश्मे बद्दूर' की "मिस चमको" नाम से जानी गयी मध्यम वर्ग की लड़की साकार करनेवाली दीप्ति नवल से फ़ारूख़जी की परदे पर जोड़ी ख़ूब जमीं.. जिसके जरिए उन्होंने आम जीवन को स्वाभाविकता से दर्शाया। हालांकि जमीनदार परिवार के होने से उनका दिखना रॉयल था; फिर भी रमन कुमार की 'साथ साथ (१९८२) जैसी फ़िल्म में "ये तेरा घर..ये मेरा घर.." ऐसा आम लोगों का सीमित सपना वह गुनगुनातें रहें! फिर हृषिकेश मुख़र्जी की 'किसी से ना केहना' और 'रंग बिरंगी' (१९८३) जैसीं रोमैंटिक कोमेडी फिल्मों में उन्होंने अच्छे रंग भरें!..आखरी बार फ़िल्म 'लिसन अमया' (२०१३) में यह बुज़ुर्ग कलाकार साथ आए!
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| टीवी धारावाहीक 'श्रीकांता' में मृणाल कुलकर्णी और फ़ारूख़ शेख़! |
इसी दौरान शबाना आज़मी के साथ भी फ़ारूख़जी ने पारीवारिक 'लोरी' (१९८४) और सामाजिक 'एक पल', 'अंजुमन' (१९८६) जैसी समस्याप्रधान फ़िल्में की! आगे 'तुम्हारी अमृता' इस नाटक में भी दोनों ने साथ में बेहतरीन काम किया!
दरमियान फ़ारूख़जी ने टेलीविज़न पर भी कुछ महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायी जैसे की प्रख्यात बंगाली साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की उपन्यास पर बनी 'श्रीकांत' (१९८५ से १९८६) और स्वतंत्रता सेनानी हसरत मोहानी पर हुई 'कहक़शाँ' (१९८८). इसके साथ ही राजकीय उपहास पर उल्लेखनीय 'जी मंत्रीजी'! बाद में 'जीना इसी का नाम है' कार्यक्रम का सूत्रसंचालन भी उन्होंने बख़ूबी किया।
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| फ़िल्म 'लाहौर' (२००९) में फ़ारूख़ शेख़! |
बाद में कुछ ऑफ बीट फिल्मों में फ़ारूख़जी ने काम किया जैसे की 'मादाम बोवारी' इस ग्यूस्टाव फ्लाउबर्ट की अभिजात फ्रेंच नॉवेल पर केतन मेहता ने बनायी हिंदी फिल्म 'माया मेमसाब' (१९९३) में उन्होंने दीपा साही के साथ डॉक्टर की भूमिका निभाई! तो शोना उर्वशी ने बनायी 'सास बहु और सेंसेक्स' (२००८) इस आधुनिक मुंबई के जीवन पर सिनेमैटिक कमेंट करने वाली फ़िल्म में भी अलग किरदार निभाया!
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| आखरी फिल्म 'क्लब ६०' (२०१३) में फ़ारूख़ शेख़ और सारीका! |
इसके बाद 'लाहौर' (२००९) इस फ़िल्म में भी उनका महत्वपूर्ण क़िरदार था..जिसके लिए उन्हें 'सर्वोत्कृष्ट सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय सम्मान मिला!..और 'क्लब ६०' (२०१३) यह सिनियर सिटीज़न के भावविश्व पर बनी उनकी आखरी फिल्म रहीं!
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| दीप्ति नवल और फ़ारूख़ शेख़ आखरी बार साथ..'लिसन अमया' (२०१३). |
२०१३ में उनकी 'लिसन अमया' यह फ़िल्म 'इफ्फी', गोवा में नवम्बर में मैंने देखी..और दिसम्बर में वह दिल का दौरा पडने से गुज़र जाने की ख़बर आयी!..लगा जैसे 'गमन' में उनपर फ़िल्मायी गयी ग़ज़ल वह वाक़ई महसूस कर रहें थे..
"सीने में जलन..आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ हैं.."
- मनोज कुलकर्णी
['चित्रसृष्टी', पुणे]










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