वो 'जुगनू' यही चमका!
हुस्न और आवाज़ की मलिका नूरजहाँ! |
'अनमोल घड़ी' (१९४६) के गाने में नूरजहाँ |
'अनमोल घड़ी' (१९४६) में ऐसा रूमानी गाकर परदे पर खिलखिलाती नूरजहाँ तब यहाँ उस मक़ाम पर थी।
लेकिन एक साल में वह घड़ी उससे जुदा हो गई!
१९४७ में हमारे मुल्क़ को आज़ादी मिली और उसके साथ बटवारे का सदमा भी!
और यह 'मलिका-ए-तरन्नुम' सरहद के उस पार चली गयी।
'जुगनू' (१९४७) के पोस्टर पर नूरजहाँ-दिलीपकुमार! |
उसी साल यहाँ प्रदर्शित हुई थी फ़िल्म 'जुगनू'..जिसमें अदाकारी के शहंशाह यूसुफ़ ख़ान याने दिलीपकुमार की नायिका हुई नूरजहाँ! इसे निर्देशित किया था उसके शोहर शौकत हुसैन रिज़वी ने! वह एक सोशल रोमैंटिक थी, जिसमे अमीरी-ग़रीबी के बीच उलझती मोहब्बत को दर्शाया गया था। ए. एस. उस्मानी की कहानी पर खादिम मोहीउद्दीन ने इसकी पटकथा लिखी थी।
उस 'जुगनू' की ख़ास बात यह
भी थी की, उसमें संगीत की दुनिया की और दो जानीमानी हस्तियाँ परदे पर दिखाई
दी। उसमें एक थे ग़ुलाम मोहम्मद और दूसरे मोहम्मद रफ़ी! अपनी दर्दभरी मीठी
आवाज़ में..
"वो अपनी याद दिलाने को.."
'जुगनू' (१९४७) में गाते मोहम्मद रफ़ी! |
उस ज़माने के जानेमाने नग़्मा-निगार अदीब सहारनपुरी और असग़र सरहदी ने इस
फिल्म के गाने लिखें थे और फ़िरोज़ निज़ामी ने वे संगीतबद्ध किए थे। इसमे
मोहम्मद रफ़ी ने अपना शुरूआती डुएट नूरजहाँ के साथ गाया "यहाँ बदला वफ़ा का
बेवफ़ाई के सिवा क्या हैं.." जो ख़ुद नूरजहाँ और दिलीपकुमार ने परदे पर
संजीदगी से साकार किया।
'जुगनू' (१९४७) के रूमानी दृश्य में नूरजहाँ और दिलीपकुमार! |
१९८२ के दरमियान अपने भारत में नूरजहाँ तशरीफ़ लायी थी। तब उसके सम्मान में अपनी फिल्म इंडस्ट्री ने शानदार समारोह आयोजित किया था। उसमें दिलीप कुमार के सामने वो खुलकर गायी। शायद 'जुगनू' के "उमंगें दिल की मचली, मुस्कुराई ज़िंदगी अपनी.." गाने की तरह ही उसके जज़्बात थे!
नूरजहाँ अपने शोहर शौकत हुसैन रिज़वी के साथ! |
उन्हें सुमनांजलि!!
- मनोज कुलकर्णी
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