Thursday 27 December 2018

महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब साहब!


“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे..
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”

..ऐसा जिनका ज़िक्र होता है वह.. फ़ारसी तथा उर्दू भाषा के सर्वकालिन महान शायर..मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खां 'ग़ालिब' साहब का आज २२१  वा जनमदिन!

तुर्क मूल से ताल्लुक रखनेवाले असद उल्लाह बेग खान का जनम आगरा में.. 
२७ दिसंबर, १७७६ को सैनिकी परिवार में हुआ था! पिता के जल्द गुजर जाने के बाद.. ईरान से आए शख़्स से उन्होंने छोटी उम्र में फ़ारसी सीखी..और उर्दू के साथ फ़ारसी में अपनी काव्य प्रतिभा को उजागर करना शुरू किया!

ग़ालिब नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा साहब की शायरी में रूमानीयत के साथ नाजुक पहलूं पर भाष्य होता था..जैसे की..

"जब वो जमाल-ए-दिल फरोज़, 
सुरते-मेहर-नीमरोज
आप ही हो नजारा-सोज..
पर्दे में मुँह छिपाये क्यों?"
और
"दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त
दर्द से भर न आये क्यों?"

मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि रहे मिर्ज़ा ग़ालिबजी को इस कलाप्रेमी शहेंशाह ने १८५० में 'दबीर-उल-मुल्क' और 'नज्म-उद-दौला' इन खिताबों से नवाज़ा था!

निकाह के बाद दिल्ली आए मिर्ज़ा ग़ालिबजी की ग़ज़लों में जीवन बिताने की कश्मकश बयां होती रही.. जैसे की..
"हजारो ख्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां..लेकिन कम निकले!"

ग़ालिब साहब इंसानको मज़हबसे ऊपर समझते थे और ईद, दिवाली अपनी शायराना अंदाज़से मनाते थे!
ग़ालिब साहब को खास कर उनकी उर्दू ग़ज़लों के लिए याद किया जाता है..जैसे की..

"दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है"
सम्मानित 'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) फ़िल्ममें उनकी शायरीको भारत भूषण और सुरैय्या ने बख़ूबी पेश कियाँ!

मिर्ज़ा ग़ालिब साहब १५ फरवरी, १८६९ को यह जहाँ छोड़ गए!..जीवन की सच्चाई उन्होंने ऐसी बयां की..

"मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा 'ग़ालिब'..
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी" 

उन्हें मेरा सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

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