Wednesday 22 July 2020


विशेष लेख:

अष्टपैलू गीतकार..आनंद बख्शी!


प्रतिभाशाली अष्टपैलू गीतकार..आनंद बख्शी जी!

"मैं शायर तो नहीं.." यह आनंद बख्शी का गाना फ़िल्म..
'बॉबी' (१९७३) में डिंपल की तऱफ देखकर पेश करते ऋषि कपूर!
"मैं शायर तो नहीं..मग़र ऐ हसीं
जब से देखा मैंने तुझको..
मुझको शायरी आ गयी.."

ज़्यादातर (हम जैसे) रूमानी शायरों की यह वास्तविकता आनंद बख्शी जी ने अपने इस गीत में बयां कर दी थी!

'आरके' की फ़िल्म 'बॉबी' (१९७३) में यह गाना ऋषि कपूर बर्थ डे पार्टी में डिंपल की एक झलक देखकर गाता हैं।..संजोग से अब बख्शी जी के (९० वे) जनमदिन पर यह मुझे याद आया।

'हिमालय की गोद में' (१९६५) के "चाँद सी मेहबूबा हो मेरी.." 
इस आनंद बख्शी के गाने में मनोज कुमार और माला सिन्हा!
ख़ैर, आनंद बख्शी मूल रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) से थे और बटवारे के बाद अपने परिवार के साथ यहाँ पुणे आएं और बाद में मेरठ और फ़िर लखनऊ में बस गएँ। जवानी से उन्हें कविता लिखने का शौक था। ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने हमारी 'इंडियन आर्मी' ज्वाइन की और फिर 'रॉयल इंडियन नेवी' में काम किया। लेकिन फ़िल्म संगीत की डोर ने उन्हें दिल्ली से बंबई खिंच लाया!

दरअसल वे गीत लेखन के साथ गायक बनने की तमन्ना लिए फ़िल्म इंडस्ट्री में आए थे; लेकिन गीतकार ही बन गए! १९५८ में भगवानदादा की भूमिका वाली, निसार बज़्मी के संगीत में फ़िल्म 'भला आदमी' के लिए उन्होंने गीत लिखें जिसमें था "धरती के लाल ना कर इतना मलाल.." जो १९५६ में उनकी आवाज़ में 'ऑल इंडिया रेडिओ' में पहली बार रिकॉर्ड हुआ था!

प्रतिभाशाली संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी के साथ गीतकार आनंद बख्शी जी!
हालांकि, बतौर गीतकार आनंद बख्शी को पहचान मिली १९६२ में फ़िल्म 'मेहँदी लगी मेरे हाथ' से। कल्याणजी-आनंदजी का संगीत था इसे, जिसमें आगे विजय भट्ट की फ़िल्म 'हिमालय की गोद में' (१९६५) के लिए उन्होंने लिखें गानें मशहूर हुएं। 
जैसा की मुकेश जी ने गाया और मनोज कुमार-माला सिन्हा पर फ़िल्माया "चाँद सी मेहबूबा हो मेरी.." इसी दौरान यही संगीत-गीतकार की अगली हिट फ़िल्म आयी सूरज प्रकाश की 'जब जब फूल खिलें' जिसमें मोहम्मद रफ़ी की मीठी आवाज़ में "एक था ग़ुल और एक थी बुलबुल.." यह शशी कपूर और नंदा पर फ़िल्माया गाना प्रेमी दिलों को छू गया!

फ़िर उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल इस प्रतिभाशाली संगीतकार जोड़ी का 'आसरा' लिया! उनके लिए 'आये दिन बहार के' (१९६६), 'मिलन' (१९६७) और 'अंजाना' (१९६९) ऐसी रूमानी फ़िल्मों के गीत वे लिखते गएँ। इसमें "मस्त बहारों का मैं आशिक़.." गाकर जितेंद्र को जंपिंग जैक से हिट करने वाली 'फ़र्ज़' भी थी!

'आराधना' (१९६९) के "कोरा कागज़ था ये मन मेरा.." इस  
आनंद बख्शी के गाने में राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर!
और आयी शक्ति सामंता की हिट रोमैंटिक-म्यूजिकल 'आराधना' (१९६९) जिसके लिए उन्होंने लिखें गानें बहोत ही मशहूर हुएँ, जो सचिन देव बर्मन के संगीत से सजे थे। राजेश खन्ना तो इससे पहला सुपरस्टार हुआ जिसके साथ थी ख़ूबसूरत शर्मिला टैगोर। उनपर फ़िल्माया किशोर कुमार और लता मंगेशकर ने गाया "कोरा कागज़ था ये मन मेरा.." बहोत रोमांचकारी रहा! इसके बाद राजेश खन्ना के तो बख्शी जी पसंदीदा गीतकार हुए। आगे की शक्तिदा की ही 'कटी पतंग' (१९७०) और 'अमर प्रेम' (१९७१) इन फ़िल्मों के लिए उन्होंने ही संवेदनशील गीत लिखें, जिन्हें सचिनदा के बेटे राहुल देव बर्मन ने संगीत से सवारा।

गीतकार आनंद बख्शी अपनी गाने की तमन्ना पूरी करते हुए!
दरमियान उनकी गायक होने की तमन्ना भी पूरी हुई! मोहन कुमार की फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' (१९७२) के लिए संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने उन्हें एकदम लता मंगेशकर जी के साथ "बाग़ों में बहार आयी.." गाने का मौका दिया। बाद में इन्ही के संगीत में उन्होंने 'चरस' (१९७६) फ़िल्म के "आजा तेरी याद आयी.." इस रफ़ी-लता जी के गाए गाने में शुरू का मुखड़ा गाया! फ़िर 'बालिका बधु' (१९७६) फ़िल्म के लिए "जगत मुसाफ़िरख़ाना.." उनसे गवाया आर. डी. बर्मन ने, जिसके संगीत में
उन्होंने अपनी सिनेमा की माइलस्टोन रमेश सिप्पी की ब्लॉकबस्टर 'शोले' (१९७५) में "चाँद सा कोई चेहरा.." इस क़व्वाली में मन्ना डे, किशोर कुमार और भुपिंदर के साथ अपनी आवाज़ भी दी थी; लेकिन फ़िल्म में वह शामिल न हो सकी!

'दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे' (१९९५) के "तुझे देखा तो ये.." 
इस आनंद बख्शी के गाने में काजोल और शाहरुख़ ख़ान!
इसके बाद अपने ४० वर्षों की फ़िल्म कैरियर में बख्शी जी ने सिर्फ़ अपने गीत लेखन पर ही ध्यान दिया। रमेश सिप्पी की ही तरह बॉलीवुड के और भी बड़े फ़िल्मकारों ने उन्हें ही चुना। जैसे की 'अमर अक़बर अन्थोनी' (१९७७) के मनमोहन देसाई, 'क़र्ज़' (१९८०) के सुभाष घई, या 'चाँदनी' के यश चोपड़ा और 'त्रिदेव' (१९८९) के.. गुलशन राय! संगीतकारों की अगली पीढ़ी के लिए भी वे वैसे ही लिखते गए। जैसे की राजेश रोषन के लिए फ़िल्म 'ज्यूली' (१९७५) के इरोटिक गाने हो; या विजु शाह के लिए 'तेरे मेरे सपने' (१९९६) के नये जोश के! वैसे ही जतिन-ललित के लिए सुपरहिट 'दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे' (१९९५), नदीम-श्रवण के लिए 'परदेस' (१९९७) या उत्तम सिंह के लिए हिट 'ग़दर' (२००१) के अनोखें! वे अष्टपैलू गीतकार बने रहें।

गीतकार आनंद बख्शीजी आजके संगीतकार ए.आर रहमान से चर्चा करते!
"झिलमिल सितारो का आंगन होगा.." जैसे जीवन का ख़ूबसूरत सपना देखानेवाले हो, "मैंने पूछा चाँद को के देखा हैं कहीं मेरे यार सा हसीं.." जैसे शायराना अंदाज़ में इश्क़ जताने के हो, "हम बने तुम बने एक दूजे के लिएं." जैसे प्यारकी तीव्रता दिखानेवाले हो या "मेरे देशप्रेमियों आपस में प्रेम करों." जैसे राष्ट्रीय एकात्मता को अधोरेखित करनेवाले हो और "जिंदगी हर कदम एक नई जंग है.." जैसे स्फूर्तिदायी हो..बख्शी जी की कलम मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में बयां होती गयी!

कुल ६३८ फ़िल्मो के लिएं उन्होंने ३५०० से ज़्यादा गानें लिखें। इसमें से कुछ को 'फ़िल्मफ़ेअर' जैसे सम्मान भी मिले। २००८ में 'मेहबूबा' यह उन्होंने लिखें गानों की आख़री फ़िल्म प्रदर्शित हुई, जिसका संगीत इस्माइल दरबार ने किया था।

उससे पहले ही २००२ में उन्होंने इस जहाँ को अलविदा किया था। जैसे वो जानते थे आख़री फिल्म का यह गाना लिखते "अच्छा तो मैं अब चलता हूँ.."

बख्शी साहब को यह सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी

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