Thursday 19 April 2018

आम लोगों का मनोरंजन..सिनेमा उनसे दूर!


- मनोज कुलकर्णी

बॉलीवुड की सबसे अधिक साल सिंगल स्क्रीन में चली १९९५ की 
शाहरुख़ खान और काजोल की 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे'!

प्रकाश मेहरा की हिट फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' (१९७८) में 
अमिताभ बच्चन, रेखा और अमजद खान!
समानांतर सृष्टी की अनुभूति देनेवाला और उसमें अपना जी चाहा जीवन, प्यार और सुख-दुख महसूस करनेवाला..आम लोगों का एकमात्र प्रिय मनोरंजन था (और है) सिनेमा! लेकिन सिंगल स्क्रीन से..महेंगा हो कर मल्टीप्लेक्स के हाई-फाई कल्चर में आया उनका प्यारा सिनेमा..जैसे उनसे दूर चला गया!

वह जमाना था जब अपने चहेते कलाकार, निर्देशक की या कोई पसंदीदा फ़िल्म रिलीज़ होती थी तो साथियों के साथ उसका लुत्फ़ उठाने चल पड़ते थे दीवाने! इसमें हम बचपन में अमिताभ बच्चन की फिल्म रिलीज़ होते ही जाते थे.. अन्याय करनेवालों का बेड़ा गर्क करनेवाले इस एंग्री यंग मैन का संघर्ष महसूस करने! सीटियाँ तो खूब पड़ती थी तब थिएटर में!

 नासिर हुसैन की रोमैंटिक म्यूजिकल्स 'दिल देके देखो' (१९५९) में आशा पारेख और शम्मी कपूर!
फिर बड़े होने पर कॉलेज के ज़माने में मैटिनी को फ़िल्मकार नासिर हुसैनकी रोमैंटिक म्यूजिकल्स कॉलेज बंक करके देखते थे और उसमें दिखाई देने वाले रूमानी पलों में खुद को देखतें बड़े रोमैंटिक हो कर बाहर निकलते थे! तब ही फिल्मों पर लिखना मैने शुरू किया; इस लिए मैं बाद में क्लासिक से सोशल हर तरह की फ़िल्में गंभीरता से देखने लगा!
शक्ति सामंता की रोमैंटिक फिल्म 'आराधना' (१९६९) में शर्मिला टैगोर और राजेश खन्ना!

मुझे याद है ढाई या पाँच रुपये से शुरू हुआ करती थी सिंगल स्क्रीन की टिकिटे तब..और काम से थके भागे लोग अपना दिल बहलाने (या कभी जी न पानेवाले) सपनों का सफर देखने-महसूस करने आ कर बैठ जाते थे इसमें! उच-नीच, मजहब-जात ऐसा कोई भेद वहां था ही नहीं..सब एक साथ अपने प्यारे सिनेमा की दुनियाँ में खुशी से खो जाते थे! भूल जाते थे अपनी नीजी दुखी जिंदगी!

समानांतर सिनेमा का दौर शुरू करनेवाली श्याम बेनेगल की 
फिल्म 'अंकूर' (१९७४) में शबाना आज़मी और अनंत नाग!

देखते देखते सिनेमा में काफ़ी तकनिकी बदलाव आया..सिनेमास्कोप, ७० एम.एम. से डॉल्बी साऊंड और ३ डी तक देखने-सुनने के कई आधुनिक रूप इसको मिले! मुख्य प्रवाह और कला सिनेमा ऐसे दो वर्ग में वह बटा और बाद में समानांतर सिनेमा का 'अंकूर' भी उगा! 

विश्व सिनेमा की शताब्दी समारोह पर बम्बई में १९९५ में हुए 
'सिनेमा सिनेमा' कार्यक्रम के पूर्व इसके सादरकर्ते शोमैन 
फ़िल्मकार सुभाष घई के साथ मै बात करता हुआ!


नेशनल अवार्ड्स के साथ अपने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स ने भी सिनेमा की क्वालिटी को परखना और दिखाना शुरू किया था..तो ऐसे सिनेमा को फिल्म सोसाइटी जैसे उपक्रमों के ज़रिए देखने लगे क्लास औडिएंस! फिर 'फिल्म अप्रेसिअशन' (एफ.ए.) कोर्स की जरुरत महसूस हुई..और पहले से गंभीरता से सिनेमा पर लिखते आ रहा मैने भी मेरे कम्युनिकेशन-जर्नालिज्म कोर्स (बी.सी.जे) के बाद वह 'एफ.ए.' कोर्स फ़िल्म इंस्टिट्यूट में किया!..बाद में अपने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स ('इफ्फी') को जाकर बहोत अच्छा वर्ल्ड सिनेमा देखता रहा!
श्रीलंकन श्रेष्ठ फ़िल्मकार लेस्टर जेम्स पेरिस और मिसेस सुमित्रा पेरिस के साथ 
दिल्ली के 'सीरी फोर्ट' में २००० में हुए 'इफ्फी' में मैं!


फिर परिस्थिती ऐसी आयी की ज्यादा तर अच्छा और पारितोषिक प्राप्त सिनेमा सिर्फ फिल्म फेस्टिवल्स तक ही सीमित रहा! ऐसा सिनेमा देखनेवाला एक एलीट क्लास औडिएंस तैयार हुआ..जो सिंगल स्क्रीन के आम माहौल में जाना इतना पसंद नहीं करता था! तो सिनेमा के साथ उसके दिखाने की जगह में भी परिवर्तन आने की जरुरत पड़ी! 

विकसित हुआ शॉपिंग मॉल कल्चर..शुरुआत मल्टीप्लेक्स थिएटर की!
ऐसे वक़्त एक तरफ मॉल कल्चर भी यहाँ विकसित हो रहा था..जिसमें सभी चीजें एक ही बड़ी इमारत में मिलने की सुविधा हाई सोसाइटी को मिली..बाद में वह आम हो चला! तो इसी कल्चर के मद्देनज़र सामने आयी मल्टीप्लेक्स थिएटर की कल्पना..जिसमें तीन से छह-सात तक स्क्रीन्स समाविष्ट हुए। बहोत साल पहले हम जब दिल्ली में 'इफ्फी' देखतें थे..तब सिर्फ वहीँ 'सीरी फोर्ट' में ऐसे एक जगह चार-पाँच स्क्रीन्स हुआ करते थे!
मल्टीप्लेक्स थिएटर्स का महेंगा..रॉयल सिटींग अन्दाज़!
हालांकि मल्टीप्लेक्स थिएटर का नजरियाँ पूरा कमर्शियल था..इसलिए इसमें सिनेमा देखने आएं लोगों के लिए रेस्टौरंट्स और शॉपिंग शॉप्स भी खुलें! यहाँ सिनेमा देखने जानेवालों को अलग अलग फिल्मों के पर्याय उपलब्ध हुए..लेकिन एक बड़ी फ़िल्म एन्जॉयमेंट कन्सेप्ट विकसित हुई..जो आम लोगों के बस में नहीं रहीं! इसमें उनके हाई टिकेट्स रेट्स जो सौ से चारसों तक गएँ और साथ में महेंगे दामों में कुछ खाना-पीना..जो उनके लिए जैसे एक फाइव स्टार हो गया! 

इससे पहले परिवार के साथ इतवार या छुट्टी के दिन पिक्चर देखने का प्रोग्राम करनेवाले आम लोगों को यह जैसे उनकी आधी तनख़्वाह खर्च करना था..जो वह कतई कर नहीं सकतें थे! तब तक टीवी पर मूवी चैनल्स की संख्या भी बढ़ गयी थी..तो मिड्लक्लास भी केबल लेकर घर में ही सबके साथ कोई फिल्म देखने के पर्याय पर आया! लेकिन सिनेमा थिएटर में ही बड़े परदे पर अद्ययावत तांत्रिक सुविधाओं में देखकर अनुभव कर सकतें हैं!
हाल ही में आयी एस. एस. राजामौली की बड़ी लोकप्रिय फिल्म 'बाहुबली' 
और प्रभास के साहस दृश्य सिर्फ बड़े परदे पर ही एन्जॉय कर सकते हैं!


अब मासेस का यह एंटरटेनमेंट इतना महेंगा होने की (मल्टीप्लेक्स थिएटर के साथ) और भी वजहें हैं..जिसमें प्रमुख हैं फिल्मों के बढे प्रोडक्शन कॉस्ट्स..कुछ लाखों में बनती फिल्में कई करोड़ों लेनी लगी! इसके साथ कलाकार और उसमें भी लोगों के चहेते सुपरस्टार्स के दाम चोटी पर पहुँच गए! इन सब बातों का असर सिनेमा प्रदर्शन पर पड़ा और टिकिट्स महेंगे हुए! फिर मल्टीप्लेक्स में ऊचें दामों में सिनेमा देखना यह आम लोगों के बस में नहीं रहां!
बॉलीवुड के महंगे सुपरस्टार्स सलमान खान और कैटरिना कैफ़ नयी फ़िल्म 'टाईगर ज़िंदा है' में!

अब हाल ही में इस विषय पर फिर से चर्चा शुरू हुई तो यह लिखा! कुछ साल पहले 'फिक्की' के बम्बई में हुए 'फ्रेम्स' कन्वेंशन मे एक चर्चा में भी यह बात मैने उठाई थी! 

अब सिनेमा निर्मातां, निर्देशक, कलाकार, तन्त्रज्ञ और वितरक, प्रदर्शक तथा मल्टीप्लेक्स थिएटर्सवालों ने मिल कर इसका कुछ हल निकालना चाहीए..और मासेस के बस में सिनेमा का मनोरंजन लाना चाहीए!

इस लिए सबको शुभकामनाएं!!

- मनोज कुलकर्णी
 ['चित्रसृष्टी', पुणे]

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