'ऑस्कर' और अपना भारतीय सिनेमा: एक सिंहावलोकन!
आखिर क्यों महरूम रहती हैं अपनी भारतीय फ़िल्मे 'ऑस्कर' से? जहाँ ये होते है वहां के हॉलीवुड से अपने सिनेमा की बड़ी स्पर्धा या पाश्चात्य फिल्मकार, समीक्षकों का अपने सिनेमा की तरफ देखने का नज़रिया या कुछ गुटबाजी???..ऐसे कई सवाल आम तौर पर हैं। इनके अलावा वास्तविकता से जुड़े मुद्दों की तरफ रुख करना चाहिए। वे हैं बगैर किसी राजनैतिक दृष्टि से, सिर्फ सिनेमा के तज्ज्ञ व्यक्तियों द्वारा सही फ़िल्म का चयन..जो यूनिवर्सल अपील की सभी पहलुँओं से प्रगल्भ हो!
'९५ वा अकादमी पुरस्कार समारोह' हाल ही में हुआ, जिसमें अपने भारतीय सिनेमा के पक्ष में दो अवार्ड्स आएं! ये हैं कार्तिकी गोंजालवेज और गुनीत मोंगा की 'द एलिफेंट व्हिस्परर्स' को 'सर्वश्रेष्ठ शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री' का और तेलुगु फिल्म 'आरआरआर' के "नाटू नाटू" को 'बेस्ट ओरिजनल सॉन्ग' का! लेकिन 'सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म' श्रेणी में फिर से निराशा!
पिछले साल '९४ वे अकादमी पुरस्कार समारोह' में तो अपने सिनेमा पर मायूसी सी ही छा गयी थी! अपनी दो फ़िल्में इसके दो अलग विभागों के लिए भेजी गयी थी। उसमें से एक को 'डाक्यूमेंट्री फीचर' में सिर्फ़ नामांकन मिला, वह थी रिन्तु थॉमस और सुष्मित घोष की 'राइटिंग विद फायर'! दूसरी थी 'इंटरनेशनल फीचर फिल्म' में भेजी गयी तमिल‘कूझांगल’ जो स्पर्धा से बाहर हुई।
'बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फ़िल्म' के 'ऑस्कर' से महरूम रही आमिर ख़ान की 'लगान' (२००१). |
दरअसल 'लगान' के मुक़ाबले जिस फ़िल्म ने 'ऑस्कर' जीता, वह सर्बो-क्रोएशियन 'नो मैन्स लैंड' (२००१) फ़िल्म बोस्निया और हर्ज़ेगोविना की जंग पर समकालीन प्रभावी थी! वैसे भी यूरोपियन सिनेमा पहले से अकादमी में अमेरिका के बराबर हावी रहा हैं..और 'बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फ़िल्म' अवार्ड्स जीतता आ रहा हैं। इनमें इनकी ज़्यादातर फिल्में दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि लेकर आती थी। विख्यात हंगेरियन निर्देशक इस्तवान ज़ाबो की 'मेफिस्टो' (१९८१) हो, या फेमस रोबेर्टो बेनिग्नी की सर्वपसन्द इटालियन 'लाइफ इज़ ब्यूटीफुल' (१९९७) जैसी फ़िल्मे! हालांकि पिछले दो दशकों में एशियाई सिनेमा भी आगे आता नज़र आ रहा हैं। जैसे की २०१२ में असग़र फरहदी की ईरानियन फ़िल्म 'ए सेपरेशन' ने यह पुरस्कार जीता। और पिछले साल जापानी फ़िल्म 'ड्राइव माय कार' सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फ़ीचर फ़िल्म' से सम्मानित हुई, जिसपर मैंने यहाँ लिखा!
'ऑस्कर' से महरूम रही महबूब ख़ान की.. नर्गिस अभिनीत फ़िल्म 'मदर इंडिया' (१९५७). |
इसके बाद आप को और ताज्जुब होगा ऐसी बातें हुई। अपने विश्वविख्यात फ़िल्मकारों की फ़िल्में तब इस 'ऑस्कर' पुरस्कारों के लिए भेजी गयी। इनमें १९५९ में थी सत्यजीत रे जी की 'अपुर संसार' और १९६२ में थी गुरुदत्त जी की 'साहिब बीबी और गुलाम'; लेकिन इनको नामांकन भी नहीं मिला! इस विषय पर मेरी यहाँ 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट' में प्रोफेसर्स के साथ हुई चर्चा में उन्होंने कहा था "सी, आवर्स सच सिनेमा इज बियॉन्ड 'ऑस्कर'!" (हालांकि, कई साल बाद रे जी को १९९२ में 'ऑस्कर लाइफ टाइम अचीवमेंट ऑनरेरी' अवार्ड से नवाज़ा गया!) फिर पार्टीशन पर १९७४ में बनी संवेदनशील फ़िल्मकार एम्.एस. सथ्यू जी की 'गर्म हवा' को और बाद में समानांतर सिनेमा को उत्तेजित करती श्याम बेनेगल की 'मंथन' (१९७७) को भी इसके नामांकन से वंचित रहना पड़ा था!
'गाइड' (१९६५) इस देव आनंद की उनके भाई विजय आनंद ने निर्देशित की फ़िल्म से, कला और संगीत-नृत्य से ताल्लुक रखनेवाली अपनी लोकप्रिय भारतीय फ़िल्मे 'ऑस्कर' के लिए भेजने की तरफ रुख हुआ! इनमें फिर वैजयंतिमाला अभिनीत 'आम्रपाली' (१९६६) से डिंपल कपाड़िया की कमबैक 'सागर' (१९८५) और बाद में भंसाली की शाहरुख़ खान अभिनीत 'देवदास' (२०००) तक की फ़िल्में शामिल हुई!
दरमियान (आगे बड़े मेनस्ट्रीम फ़िल्ममेकर हुए) विधु विनोद चोपड़ा की 'ऍन एनकाउंटर विथ फेसेस' (१९७८) इस शार्ट डाक्यूमेंट्री को 'ऑस्कर' का नामांकन मिला था! बम्बई के रास्तों-बस्तियों पर अनाथ दिखतें बच्चों की वास्तविकता इसने बयां की थी! इसे पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन लघु तथा वृत्तपट बनानेवालों का हौसला बुलंद होने लगा! लगभग १६ साल बाद अश्विन कुमार के 'लिटिल टेररिस्ट' (२००४) ने 'लाइव एक्शन शार्ट फिल्म' के लिए नामांकन लिया। इंडो-पाक बॉर्डर के नजदीक खेलते हुए, भारत के क्षेत्र में गेंद जाने की वजह से इसमें प्रवेश किए छोटे पाकिस्तानी लड़के की और यहाँ उसे पनाह देनेवाले हिन्दू आदमी की यह दिल दहला देने वाली कहानी थी!
'बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म' के 'ऑस्कर' से वंचित..मीरा नायर की 'सलाम बॉम्बे' (१९८८). |
अपना विविध प्रादेशिक सिनेमा ज़्यादातर कथा, विषय और स्वाभाविकता की दृष्टी से प्रगल्भ होता हैं। यह सोचते हुए इनमें जब अच्छी फ़िल्म निर्माण हुई, तब उसे 'ऑस्कर' के लिए भेजी गयी। रे जी की समकालीन बंगाली 'महानगर' (१९६३) से इस तरफ झुकाव रहा! इसके बाद शिवाजी गणेशन की तीन भूमिकाएँ वाली तमिल पारिवारिक 'देवा मगन' (१९६९), विधवा और ऑटिस्टिक व्यक्ति की तेलुगु संवेदनशील 'स्वाति मुथ्यम' (१९८५), फिर मानसिक रूप से विकलांग बच्ची पर मणि रत्नम की तमिल 'अंजलि' (१९९०), कैंसर हुए पोते की दृष्टी जाने से पहले उसे जीवन की रंगीन सुंदरता दिखानेवाले बुजुर्ग की सत्यकथा पर मराठी 'श्वास' (२००४) और मलयालम सामाजिक 'एडमिन्टे माकन अबू' (२०११) आदि फ़िल्मे इसमें समाविष्ट हुई।
दरमियान इन प्रादेशिक फिल्मों को 'ऑस्कर' के लिए भेजने में राजनीति होने लगी। विशेषतः २०१४ के बाद, जैसे 'दी गुड रोड' इस गुजराती फ़िल्म का भेजा जाना! कुछ प्रदेश और वहां के चर्चित विषयों प्रति (राजनैतिक हेतु से) झुकाव दिखाना..ऐसा हुआ 'जल्लिकट्टु' (२०१९) इस मलयालम फ़िल्म को भेजते समय! तो कभी जहाँ चुनाव वही की फ़िल्म भेजना, यह हुआ तमिल ‘कूझांगल’ के बारे में! यह सिर्फ मेरा अवलोकन नहीं; बल्कि और भी कइयों का मानना था!
१९९२ में 'ऑस्कर लाइफ टाइम अचीवमेंट ऑनरेरी' अवार्ड प्राप्त अपने विश्वविख्यात फ़िल्मकार सत्यजीत रे! |
अब आखिर में अहम दो मुद्दों की तरफ तवज्जोह चाहूँगा। उनमें एक है, 'ऑस्कर' के लिए भेजी जानेवाली फ़िल्म का सही चुनाव बड़ी सोच समझकर करना चाहिए। इसमें जिस फ़िल्म को यूनिवर्सल अपील हो और पटकथा, निर्देशन, तांत्रिक मुल्ये, अभिनय आदि में प्रगल्भ सादरीकरण हो ऐसी फ़िल्म का चयन करे! दूसरा मुद्दा है, यह करने के लिए सिनेमा माध्यम के सभी पहलुँओं को (इतिहास से उत्कृष्ट निर्मिति के तांत्रिक मूल्यों तक) गहनता से समझनेवाले व्यक्तियों की जरुरत! 'फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया' इसके लिए जो चयन समिति नियुक्त करती है, उसमें (मेनस्ट्रीम के पॉपुलर के बजाय) ऐसे तज्ज्ञ व्यक्ति समाविष्ट करें, जिसमें फ़िल्म प्रोफेसर्स और सीनियर फ़िल्म क्रिटिक्स भी हो!
ख़ैर, अब आगे अपना सिनेमा 'ऑस्कर' के ('सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म' श्रेणी के साथ ही) सर्वोच्च 'बेस्ट पिक्चर' के लिए पुरजोर कोशिश करें! दुनिया में इतनी बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री हैं हमारे भारत की और इतना लोकप्रिय है हमारा सिनेमा विश्वभर!!
- मनोज कुलकर्णी
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