Wednesday 21 April 2021

ओ दूर के मुसाफ़िर..!

रूमानी शायर और गीतकार शकील बदायूनी जी!

'लीडर' (१९६४) के "ताजमहल.." गाने में वैजयंतीमाला-दिलीपकुमार!

"एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल
सारी दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है.."
 

मैं अक्सर देखता हूँ यह लाजवाब रूमानी गीत..और तसव्वुर में हसीन ताजमहल के आग़ोश में अपनी मोहब्बत!

तो कभी शायराना मिज़ाज में अपनी माशूक़ा को याद करके यह भी..
"ऐ हुस्न ज़रा जाग तुझे इश्क़ जगाये.."

'मेरे मेहबूब' (१९६३) के "इज़हार.." गाने में राजेंद्र कुमार-साधना!

मेरे ऐसे पसंदीदा रूमानी गीत शायर शकील बदायूनी जी की कलम से आएं थे 

कल उनके स्मृतिदिन पर ऐसे उन्होंने लिखें मुख़्तलिफ़ जज़्बातों के गीत याद आतें रहें।

उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे शकील मसऊदी के वालिद क़ादिरी साहब ने उन्हें अरबी, उर्दू, फ़ारसी की अच्छी तालीम दिलवाई। उनके एक रिश्तेदार ज़िया-उल-कादिरी बदायूनी मज़हबी किस्म के शायर थे। उनसे शुरू में वे मुतासिर हुए और साथ ही बदायूँ का माहौल अपनी शायरी लिखने को उन्हें प्रेरित कर गया।

१९३६ में जब वे 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' में आएं तब वहां के मुशायरों में शरीक हुएं, जिसमें उन्हें काफी सराहा गया। (बाद में उनकी शायरी से सजी रूमानी मुस्लिम सोशल फ़िल्म 'मेरे मेहबूब' में जैसा दिखाया, कुछ वैसा ही माहौल उन्हें असल में यहाँ मिला ऐसा कह सकते हैं!) ख़ैर, यहाँ उन्होंने अब्दुल वहीद 'अश्क' बिजनौरी से बाक़ायदा उर्दू कविता सीखी।

मुशायरे में अपनी शायरी पढ़ते शकील बदायूनी जी!
वहां 'बीए' पूरा करने के बाद वे दिल्ली में एक अधिकारी तौर पर काम करने लगे। साथ ही देश भर के मुशायरों में शरीक होने लगें। उस समय ज़्यादातर शायर निचले दबे समाज के उत्थान से जुडी शायरी में मसरूफ़ थे। लेकिन शकील जी का मिज़ाज रूमानियत से भरा था। वो कहतें थे..
"मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा
कि मोहब्बतों का हूँ राजदान
मुझे फख्र है मेरी शायरी..
मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं"

संगीतकार नौशाद अली, गायक मोहम्मद रफ़ी और गीतकार शकील बदायूनी!
१९४४ के दरमियान फ़िल्मों के लिएं गीत लिखने शकील बदायूनी बम्बई आएं। यहाँ फ़िल्मकार ए.आर. कारदार और संगीतकार नौशाद अली के कहने पर उन्होंने पहली बार फ़िल्म 'दर्द' (१९४७) के लिए लिखा। वह गीत था "हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे.." उसके बाद शकील और नौशाद इस गीतकार और संगीतकार जोड़ी ने एक से एक नग़्मे दिएँ। इस जोड़ी को मोहम्मद रफ़ी की दर्दभरी मीठी आवाज़ मिली..'दुलारी' (१९४९) के "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे.." इस गाने से! बाद में लता मंगेशकर की मधुर आवाज़ भी उनसे जुडी 'बैजू बावरा' (१९५२) के "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा.." डुएट से! उनके गानों पर लाजवाब अदाकार परदे पर बयां होने लगे..जैसे 'दीदार (१९५१) में "मेरी कहानी भूलनेवाले तेरा जहाँ आबाद रहें.." गाने में ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार, 'मदर इंडिया' (१९५७ ) के "दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा.." गाने में लीजेंडरी नर्गिस और 'मुगल-ए-आज़म' (१९६०) के "प्यार किया तो डरना क्या.." गाने में मलिका-ए-हुस्न मधुबाला!

'चौदवीं का चाँद' (१९६०) के शीर्षक गीत में रूमानी गुरुदत्त-वहीदा रहमान!
शकील जी ने नौशाद जी के लिए ज्यादा काम किया। उन दोनों के गीत हमेशा कानों में गूजतें हैं। जैसे की मेहबूब की बेहतरीन 'मदर इंडिया' (१९५७) का शमशाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और आशा भोसले ने गाया "दुख भरे दिन बीते रे भैया..", दिलीप कुमार-मीना कुमारी अभिनीत और रफ़ी-लता ने गाया 'कोहिनूर' (१९६०) का अभिनय-संगीत का अनोखा संगमवाला "दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन.."और मेरे पसंदीदा, शायराना रूमानी 'मेरे मेहबूब' (१९६३) के रफ़ी ने गाएं शीर्षक गीत से लेकर सभी नग़्मे जैसे की "तुमसे इज़हार-ए-हाल कर बैठें.." और रफ़ी-लता का "याद में तेरी जाग जाग के हम.." इसमें राजेंद्र कुमार और साधना की अदाकारी भी लाजवाब थी!

गायक मोहम्मद रफ़ी, गीतकार शकील बदायूनी और संगीतकार रवि!
नौशाद जी के अलावा बाकी दो प्रतिभावान संगीतकारों को भी शकील जी ने गीत लेखन का सहयोग दिया। इनमें प्रमुख फ़िल्में थी जानेमाने अभिनेता -निर्देशक गुरुदत्त की..रवि के संगीत वाली 'चौदवीं का चाँद' (१९६०) और हेमंत कुमार के संगीत वाली 'साहिब बीबी और गुलाम' (१९६२). 'चौदवीं का चाँद' के रफ़ी ने गाए शीर्षक गीत में गुरुदत्त और वहीदा रहमान का शायराना अदांज़ का रूमानीपन लाजवाब था। इसके लिए शकील जी को 'सर्वोत्कृष्ट गीतकार' का पुरस्कार मिला। फिर से रवि के संगीत में ही 'घराना' (१९६१) फ़िल्म के "हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं.." गाने के लिए उनको वह अवार्ड मिला! और आगे हेमंत कुमार जी की फ़िल्म 'बीस साल बाद' (१९६२) के "कही दीप जले कही दिल.." गाने के लिए भी!

शकील जी ने कुल ८९ फ़िल्मों के लिएं गीत लिखें। इसके अलावा उन्होंने गैर-फिल्मीं ग़ज़लें भी लिखीं जो मशहूर  बेग़म अख़्तर और पंकज उधास जैसों ने गायी। 

२० अप्रैल, १९७० में महज़ ५३ साल की उम्र में शकील जी यह जहाँ छोड़ गए।
वे रुख़सत होकर अब पचास साल हो गएँ हैं!


उन्हें यह सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी


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