Saturday 31 October 2020

कोहीनूर मिलन!



"दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन.."
१९६० की फ़िल्म 'कोहीनूर' के इस रूमानी गीत की यह क्लासिक फ्रेम है।

यह गीत हमेशा मुझे रूपकात्मक लगता हैं। इसलिए की अपने भारतीय सिनेमा की श्रेष्ठ हस्तियों का यह मिलन हैं..

परदेपर साकार करनेवालें दिलीप कुमार और मीना कुमारी,
उनके लिए साथ गाएं मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर,
तथा शायर शकील बदायुनी और संगीतकार नौशाद अली!


इसको अब ६० साल हुएं; मगर दिलोदिमाग़ पर वैसे ही छाया हुआ हैं।

वाकई वह कोहीनूर मिलन था!

- मनोज कुलकर्णी

दूज के चाँद हुए वे!


दास्तान-ए-मोहब्बत...उर्दू शायर साहिर लुधियानवी और पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम!

'कभी कभी' फ़िल्म के शीर्षक गीत में अमिताभ बच्चन महाविद्यालीन जीवन में उभरते शायर के रूप में, राखी की तरफ़ देखकर ख़याल बयां करता हैं "तुझको बनाया गया है मेरे लिए.."

शायर साहिर लुधियानवी जी ने यह लिखा था और उसमें उनकी ही ऐसी प्रेम कहानी थी।
१९३९ के दौरान इस मोहब्बत का आगाज़ हुआ था (लाहौर-दिल्ली के बीच) प्रीत नगर में ही! तब एक ही कॉलेज में साहिर और कवयित्री अमृता कौर (प्रीतम) पढ़ रहें थे। एक शायराना माहौल में इन दोनों की आँखें मिली और उस ज़रिये प्यार बयां हो गया।

प्यार का जुनून लिए जवाँ..अमृता कौर (प्रीतम) और साहिर!

हालांकि अमृताजी साहिर से दो साल सीनियर थी और उनकी शादी (कम उम्र में ही) प्रीतम सिंह से हुई थी! लेकिन प्यार का जूनून दोनों में था। नतीजन साहिर को वह कॉलेज छोड़ना पड़ा। कुछ साल बाद (१९४४ के दरमियान) वे दोनों लाहौर में मिले। तब तक उर्दू शायरी में साहिरजी और पंजाबी साहित्य में अमृताजी अपना मक़ाम हासिल कर चुके थे!

 मुल्क़ विभाजन के बाद अमृताजी दिल्ली आई और साहिरजी बम्बई..जहाँ फ़िल्मों के लिए उन्हें गीतलेखन करना था। बाद में  ख़तों के जरिए शायराना अंदाज़ में इश्क़ बयां होता रहा। दरमियान अमृताजी शादी के बंधन से अलग हुई थी! लेकिन यहाँ साहिर फ़िल्म क्षेत्र में अपने काम में मसरूफ़ हुए थे।

उस दौरान गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ भी साहिर के प्यार के चर्चे हुए। लेकिन कहाँ गया की यह एकतरफ़ा था। बहरहाल, साहिरजी का सुधाजी ने गाया गीत "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ हैं तुमको..मेरी बात और हैं मैंने तो मोहब्बत की है.." सब साफ बयां कर देता है!..लेकिन अमृताजी इससे कुछ नाराज़ हुई थी और बाद में चित्रकार इमरोज से उनकी नज़दीकियाँ बढ़ी!

मोहब्बत के ख़ूबसूरत मोड़ पर..साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम!
कहते है साहिरजी ने कभी अमृताजी के साथ अपना प्यार खुल कर ज़ाहिर नहीं किया। हाँ, उनके गीतों में इसका ज़िक्र आता था। तो दूसरी तरफ़ अमृताजी ने उनके इश्क़ पर एक कहानी लिख कर सब बयां कर दिया था! लेकिन उसपर साहिरजी ने खास तवज्जोह नहीं दिया! तब उनकी कलम ज्यादा तर सियासी और सामाजिक मुद्दों पर चल रही थी। "हज़ारो ग़म है इस दुनिया में..मोहब्बत ही का ग़म तनहा नहीं.." ऐसा नग़्मा उन्होंने लिखा भी!

वैसे साहिरजी के जीवन के ऐसे नाजुक पल फ़िल्मों में अक्सर आतें रहें। संवेदनशील अभिनेता-निर्देशक गुरुदत्त ने बनायीं क्लासिक फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) के स्रोत साहिर ही थे। उसमें उस कवी की शायरी जिस नाम से प्रसिद्ध होती है वह 'परछाइयाँ' साहिरजी की ही है। बाद में जानेमाने निर्देशक बी.आर.चोपड़ा ने बनायीं फ़िल्म 'गुमराह' (१९६३) का गीत "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.." साहिरजी की दास्तान-ए-मोहब्बत ही बयां करता है!

ख़ैर, इसपर मुझे साहिरजी का ही 'दूज का चाँद' (१९६४) का "महफ़िल से उठ जाने वालो तुम लोगो पर क्या इलज़ाम.."  गाना उन दोनों पर याद आता हैं!
वाकई वे एक दूसरे के लिए दूज का चाँद हो गएँ!!


साहिरजी जल्द यह जहाँ छोड़ गए; तो उनसे मेरी मुलाकात हो नहीं पायी। लेकिन अमृताजी से मिलने का मौका मुझे मिला..जब हम 'जर्नलिज़्म कोर्स' के स्टूडेंट्स १९८८ में दिल्ली गए थे। तब उनसे हुई चर्चा में मैंने दृढ़ता से पूछा "साहिरजी ने "इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर.." नग़्मा क्या आपके लिए लिखा था?" उसपर तो सब चौंक गएँ; लेकिन उन्होंने खुलकर उसका जवाब दिया "हाँ, मैंने मेरी ऑटोबायोग्राफी 'रसीदी टिकट' में इस बारे में लिखा हैं!"

अमृताजी की जन्मशताब्दी पिछले साल हुई और साहिरजी का जन्मशताब्दी साल शुरू हुआ है!
दोनों को सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 28 October 2020

गुजरात के फेमस आर्टिस्ट्स ब्रदर्स नहीं रहें!

गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी!

गुजराती सिनेमा के सुपरस्टार नरेश कनोडिया जी और उनके
बड़े भाई मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी गुज़र जाने के समाचार दुखद हैं!

मशहूर गायक तथा संगीतकार महेश कनोडिया जी!
पॉपुलर गुजराती सिनेमा में बड़ी लोकप्रियता नरेश कनोडिया जी ने हासिल की थी। कुल पाँच दशक वे वहां परदे पर छायें रहें। उनकी हिट फिल्मों में 'जोग संजोग', 'लाजु लखन', 'ढोला मारु', 'राजवीर' आदी शामिल हैं। उन्हें बम्बई के 'दादासाहेब फालके अकादमी अवार्ड' से सम्मानित भी किया गया था!

तो महेशकुमार कनोडिया जी के संगीत प्रोग्रामस बड़े हिट हुआ करतें थे। इसमें वे दोनों आवाजों में लाजवाब गातें थे! इसके अलावा उन्होंने गुजराती फिल्मों के लिए संगीत भी दिया। इसमें 'जिगर एंड एमी', 'तानारीरी' जैसी फिल्मों के लिए उन्हें अवार्ड्स भी मिलें!

नरेश कनोडिया फिल्म में!


इन दो भाईयों का दो दिनों में आगे-पीछे जाना उनमे रहे गहरे प्यार की अनुभूति देता हैं!

इन दोनों को सुमनांजली!!

- मनोज कुलकर्णी

Sunday 25 October 2020


"हम ग़मज़दा हैं..लाएं कहाँ से खुशी के गीत
देंगे वोही..जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम..!"

ऐसा अंदाज़-ए-बयाँ था यथार्थवादी शायर साहिर लुधियानवी जी का!

उनको ४० वे स्मृतिदिन पर सुमनांजली!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 20 October 2020

जब रफ़ी साहब से मिले ग़ुलाम अली!


"रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ.."

'ग़ज़ल' (१९६४) फ़िल्म में यह शायराना माहौल में गाकर दिल को छू गए थे मोहम्मद रफ़ी!

अपने भारत के ये मधुर आवाज़ के बेताज बादशाह से पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकी के उस्ताद ग़ुलाम अली जी की मुलाकात की यह तस्वीर!

"दिल में एक लेहेर सी उठी है अभी.." ऐसी ग़ज़लें रूमानी अंदाज़ में गाकर मशहूर हुए ग़ुलाम अली मई-जून १९८० के दरमियान बम्बई में थे। तब रफ़ी साहब ने खुद उन्हें फोन करके मिलने को कहा। इससे रोमांचित हुए ग़ुलाम अली उन्हें मिलने पहुँचे। वहां रफ़ी जी ने उनकी अच्छी मेहमान नवाज़ी की। उस दौरान ग़ुलाम अली जी ने उन्हें कहाँ, "आपको पूरी दुनिया सुनती है और हम तो आपके चाहनेवाले हैं!" उसपर रफ़ी जी ने उन्हें कहाँ, "लेकिन मैं आपको सुनता हूँ!"

इस बात का ज़िक्र ग़ुलाम अली जी ने एक मुलाक़ात में किया था। बाद में उन्होंने अपने भारतीय सिनेमा के लिए भी गाया, जिसकी शुरुआत हुई बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म 'निक़ाह' (१९८२) से। इसकी उनकी "चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद हैं.." यह ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई।

ग़ुलाम अली जी ने तब बताया की रफ़ी जी की गायी "दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ.." ग़ज़ल उन्हें बहुत पसंद है।
मिर्ज़ा ग़ालिब जी की यह ग़ज़ल ख़य्याम साहब ने राग पुरिया धनश्री में संगीतबद्ध की थी। यह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़ल रफ़ी जी की दर्दभरी आवाज़ की ऊंची अनुभूति देती हैं!

ग़ुलाम अली जी ख़ुशक़िस्मत थे जो उनका रफ़ी जी से मिलना हुआ। उसी साल कुछ दिन बाद जुलाई में रफ़ी साहब इस दुनिया से रुख़सत हुए!
अब चालीस साल गुज़र गये है!

अलग अंदाज़ में गानेवाले ये दोनों हमारे अज़ीज़!!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 13 October 2020


"होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है..
इश्क किजे फिर समझिये जिन्दगी क्या चीज है!"
ऐसी रूमानी नज़्म हो, या

"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता..!"
ऐसी वास्तविकता बयां करना हो, या

"घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए.!"

ऐसा इंसानियत का सन्देश देना हो, या

"हिन्दू भी सुकूँ से है, मुसलमाँ भी सुकूँ से
इंसान परेशान..यहाँ भी है वहाँ भी..!"

ऐसा दोनों मुल्कों में इंसानों के जज़्बात बयां करना हो!

ऐसा लिखनेवाले तरक्कीपसंद अज़ीज़ शायर निदा फ़ाज़ली जी का ८२ वा जनमदिन हुआ!

मुशायरे के दौरान उनसे हुई ख़ास मुलाकात याद आ रही है!

उन्हें सलाम!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Saturday 10 October 2020

एक्सक्लुजिव्ह लेख:


मानसिक अस्वस्थ्यता का सिनेमा में चित्रण!

'पेड़गावचे शहाणे' (१९५२) में अभिनेता-निर्देशक राजा परांजपे!
आज 'जागतिक मानसिक स्वास्थ्य दिन'! इस विषय पर जागृति की बहोत आवश्यकता है। यह बीमारी (अलग-अलग तरीके से) पहले से रहती है, कभी मस्तिष्क में रसायनों के बदल से भी होती है ऐसा कहते है; तो कभी कुछ वजहों से पड़े सदमों से उत्पन होती है। सिनेमा में हुए इसके चित्रण का यहाँ संक्षिप्त में विवेचन कर रहा हूँ।

इसमें मुझे सबसे पहले याद आती हैं मराठी सिनेमा के जानेमाने अभिनेता-निर्देशक राजा परांजपे ने १९५२ में बनाई फिल्म 'पेड़गावचे शहाणे', जिसमें उन्होंने खुद शीर्षक भूमिका साकार की थी। किसी ज़माने में सर्जन रह चुके यह शहाणे अपनी प्रियतमा पर असफल ऑपरेशन की वजह से दिमाग़ का संतुलन खो बैठते हैं और कैंची देखने पर उन्हें पागलपन का दौरा पड़ता रहता है। लेकिन वो एक परिवार में चाचा बनके आते है और सब सुधारने के प्रयास करते है। यह व्यक्तिरेखा परांजपेजी ने बख़ूबी साकार की थी और इसका उनका गाना "झांजीबार झांजीबार.." कमाल का था। इस फ़िल्म का हिंदी संस्करण 'चाचा चौधरी' (१९५३) नाम से आया!

हिंदी फ़िल्म 'खिलौना' (१९७०) में संजीव कुमार और मुमताज़.
इसके बाद मुझे याद आती है फेमस एल. व्ही. प्रसाद की हिंदी फ़िल्म 'खिलौना' (१९७०) जो तेलुगु फ़िल्म 'पुनर्जन्म' (१९६३) की रीमेक थी, जिसमे ए नागेश्वरा राव ने प्रमुख भूमिका की थी। हालांकि दोनों फ़िल्में जानेमाने लेखक गुलशन नन्दा के उपन्यास 'पत्थर के होंठ' पर आधारित थी। तो चन्दन वोहरा निर्देशित 'खिलौना' में अपने बेहतरीन कलाकार संजीव कुमार ने इस तरह की प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसमें विजयकुमार नामक कवि जिस लड़की से प्यार करता है, वो दूसरी जगह शादी होने के कारन आत्महत्या करती है। यह देखकर वो पागल हो जाता है और बाद में कोठे की तवायफ़ चाँद उसकी बीवी बनके आकर उसे सुधार लेती है। संजीव कुमार और मुमताज़ ने यह व्यक्तिरेखाएँ लाजवाब साकार की हैं। इसके शीर्षक गाने में पागल के किरदार में संजीवकुमार दिल को छू लेते हैं!

'ज्योति' (१९८१) फ़िल्म में जितेंद्र और हेमा  मालिनी!
उसी साल असित सेन निर्देशित हिंदी फ़िल्म 'ख़ामोशी' में तबके सुपरस्टार राजेश खन्ना मानसिक स्वास्थ खो बैठे पेशंट की व्यक्तिरेखा में दिखे। यह लेखक-कवि अपनी प्रेमिका की बेवफाई की वजह से 'एक्यूट मेनिया' का शिकार हो जाता है। फिर नर्स बनी वहीदा रेहमान उसे अपने प्यार से सुधार लेती है। "तुम पुकार लो.." ऐसे गंभीर गाने में बड़े संयत तरीके से काका राजेश ने वह व्यक्तिरेखा साकार की।

इसके बाद अपनी फ़िल्मों में ऐसे कैरेक्टर्स नज़र आएँ। जैसे १९८१ में प्रमोद चक्रवर्ती ने बनाई 'ज्योति', यह भी तेलुगु फ़िल्म 'अर्धांगी' (१९५५) की हिंदी रीमेक थी, जिसमे ए. नागेश्वरा राव ही प्रमुख भूमिका में थे और साथ में थी सावित्री। इन फ़िल्मों का मूल मणिपाल बैनर्जी का बंगाली उपन्यास 'स्वयंसिद्धा' थी! ख़ैर फ़िल्म 'ज्योति' में प्रॉपर्टी की वजह से सौतेले भाई ने नशे की दवा देकर पागल किए व्यक्ति की भूमिका जितेंद्र ने निभाई। उसकी बीवी गौरी की भूमिका में थी हेमा मालिनी, जो उसके सौतेले भाई के विरुद्ध खड़ी होकर पति को सुधारती हैं। जितेंद्र और हेमा दोनों ने अपनी व्यक्तिरेखाएँ इसमें पूरी समझदारी से बख़ूबी साकार की थी।

'पैज लग्नाची' (१९९८) में वर्षा उसगांवकर और अविनाश नारकर.
बहोत सालों बाद आयी इस तरह की मराठी फ़िल्म थी 'पैज लग्नाची' (१९९८) जिसे यशवंत भालकर ने निर्देशित की थी। इसमें एक देहाती पागल से शादी करके उसे सुधारने का चैलेंज एक मॉडर्न लड़की लेती है और उसमे आखिर सफल होती है ऐसा दिखाया गया। अविनाश नारकर और वर्षा उसगांवकर ने ये भूमिकाएँ बेहतरीन साकार की। इस फ़िल्म को राज्य पुरस्कार भी मिले!
 
अमरिकी फ़िल्म 'रेन मैन' (१९८८) में फेमस टॉम क्रूज और ग्रेट डस्टिन हॉफमन!
अंग्रेजी में भी मानसिक स्वास्थ विषय पर अच्छी फ़िल्में बनी, जैसे की ऑटिज़्म को लेकर 'रेन मैन' (१९८८), एंग्जायटी पर 'व्हॉट अबाउट बॉब' (१९९१), ओसीडी से 'एज गुड एज इट गेट्स' (१९९७), स्किज़ोफ्रेनिआ पर प्रकाश डालती 'ए ब्यूटीफुल माइंड' (२००१) और डिप्रेशन को लेकर 'ए स्केलेटन ट्विन्स' (२०१४)..इसमें बैरी लेविंसन की 'रेन मैन' तो दिल को छू गयी। इसमें ऑटिस्टिक रेमंड के नाम उसके पिता ने छोड़ी बड़ी एस्टेट हासिल करने के लिए उसके सौतेले भाई के प्रयासों को दिखाया है। मेथड एक्टिंग के लिए मशहूर डस्टिन हॉफमन ने इसमें रेमंड की भूमिका लाजवाब साकार की; तो हैंडसम टॉम क्रूज इसमें उसके सौतेले भाई के निगेटिव्ह रोल में नज़र आए। इसके लिए फ़िल्म, निर्देशक और हॉफमन को 'ऑस्कर' अवार्ड्स मिले! इसके बाद इस विषय पर एक इंटेलेक्चुअल फ़िल्म की दृष्टी से 'ए ब्यूटीफुल माइंड' अपना प्रभाव दिखा कर गयी! अमरिकी गणितज्ञ जॉन नैश के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म में रसेल क्रोव ने यह प्रमुख भूमिका पूरी समझदारी से बख़ूबी साकार की थी। रॉन हॉवर्ड निर्देशित इस फ़िल्म को भी 'ऑस्कर' मिला!
'ए ब्यूटीफुल माइंड' (२००१) में रसेल क्रोव.

ज्यादातर मानसिक स्वास्थ्य से निगडित फ़िल्मों में आप देखें तो, उसमे परिस्थति और कभी प्यार जैसी नाजुक बातें भी इसकी वजह दिखाई गयीं हैं। इस सिलसिले में मुझे फेस्टिवल में देखी इस्राएली फ़िल्म 'सर्कस पलेस्टाइन' (१९९८) याद हैं। एयल हलफ़ोन निर्देशित इस सटीरिक फ़िल्म में ऐसा दिखाया है की एक लड़की के प्यार में पागल हुआ आर्टिस्ट ठीक होकर जब लौटता है तो..देखता है उसकी माशुका किसी और के इश्क़ में है। तब ये सोचता है 'यहाँ सयाने लोगों में पागल होने से बेहतर है पागलखाने में सयाना होकर रहना!' और लौटने लगता हैं!

बहरहाल, हम किसी भी वजह से अपना मानसिक संतुलन न खोएं और स्वास्थ्य बनाएं रखें!!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 6 October 2020

'नेपोटिज़्म' और 'मोनोपोली'!..वाक़ई असरदार?


मेगा स्टार अमिताभ बच्चन और सुपरस्टार शाहरुख़ ख़ान के साथ अपने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार!

पिछले कुछ सालों से अपने बॉलीवुड में 'नेपोटिज़्म' से लेकर चर्चा गरम हैं!
ऐसे वक़्त में मुझे अपने फ़िल्म इंडस्ट्री के थोड़े अतीत में झाँककर यहाँ तक का संक्षिप्त में सफ़र करना होगा।
'मुग़ल-ए-आज़म' (१९६०) फ़िल्म में अपनी 'मलिका-ए-हुस्न' मधुबाला!

अगर शुरुआत के दौर में देखें तो इसका असर कुछ इतना नज़र नहीं आता। दिग्गज़ कलाकार पृथ्वीराज कपूर की बदौलत अगर उनके पुत्र राज कपूर सिनेमा में आएं; तो उसी दौर में अपने अभिनय सम्राट युसूफ ख़ान याने दिलीप कुमार भी उभर आएं यह हक़ीक़त थी। उनका तो कोई रिश्तेदार फ़िल्म इंडस्ट्री में नहीं था, फ़िर भी अपने ज़बरदस्त अभिनय से उन्होंने अपना ऊँचा मुक़ाम यहाँ हासिल किया।

अपनी मानदंड फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) में अभिनेता-निर्देशक गुरुदत्त!
लगभग उसी दौर में संवेदनशील कलाकार गुरुदत्त भी अपने बलबूते यहाँ आए और अपनी फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी तक उन्होंने स्थापित की। उनकी चित्रकृतियाँ अपने सिनेमा की मानदंड साबित हुई! तब देव आनंद भी उनके साथ आए थे और राज कपूर के सामने उसी रोमांटिसिज़्म से असरदार रहें। बाद में शम्मी कपूर का रूमानी रिबेल स्टार अगर मशहूर हुआ; तो किसी फ़िल्मी बैकग्राउंड से न आए राजेंद्र कुमार भी जुबिली स्टार बने!.. और अपनी बुलंद आवाज़ से 'जानी' राज कुमार परदे पर छा गए।
'आनंद' (१९७१) फ़िल्म में अपने पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना!
ऐसा ही अभिनेत्रियों के बारे में देखें तो नर्गिस अपनी माँ गायिका-कलाकार जद्दनबाई की ऊँगली पकड़कर ही यहाँ सिनेमा में आयी; लेकिन अपने ज़बरदस्त अभिनय से 'मदर इंडिया' बनी! उसी तरह नूतन की माँ शोभना समर्थ पहले से फ़िल्म इंडस्ट्री में थी; लेकिन उनकी बेटी की वजह से सिनेमा में आयी नूतन अपने अभिनय गुण से माँ से आगे गई! इससे पहले मीना कुमारी अपने श्रेष्ठ अभिनय से ही ऊपर आयी।..और अपनी 'मलिका-ए-हुस्न' मधुबाला तो परिवार की सहायता के लिए बचपन में उनके पिता से इस इंडस्ट्री में लायी गयी थी!

मधुर आवाज के श्रेष्ठ गायक मोहम्मद रफ़ी!
ख़ैर, अब गायकों के बारे में भी देखें तो दादामुनी अशोक कुमार की बदौलत उनके भाई किशोर कुमार यहाँ आ सके, अपने चाचा संगीताचार्य के. सी. डे की सहायता से मन्ना डे और अपने रिश्तेदार अभिनेता मोतीलाल की वजह से मुकेश यहाँ आएं! लेकिन मोहम्मद रफ़ी तो ख़ुद की श्रेष्ठ आवाज़ के बलबुते यहाँ आए और चहेते बने।

मनोज कुमार ने देशभक्त तथा आदर्श नायक की प्रतिमा बनाकर और वैसी फ़िल्मे बनाते प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली! अपने काका जतिन खन्ना याने राजेश खन्ना टैलेंट कॉन्टेस्ट में अपना हुनर दिखाकर फ़िल्म इंडस्ट्री में आए थे और पहले सुपरस्टार हुए। धर्मेद्र भी फ़िल्मफेअर स्टार कॉन्टेस्ट से आए और शत्रुघ्न सिन्हा बाक़ायदा पुणे के 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट' से एक्टिंग कोर्स करके आए। हाँ, अब कहना हैं तो दूसरे सुपरस्टार बने अमिताभ बच्चन का..तो वे (उनकी माँ की सहेली) मशहूर अभिनेत्री नर्गिस की शिफ़ारस लेकर आए थे! लेकिन 'एंग्री यंग मैन' इमेज बनाकर उन्होंने अपने सिनेमा के नायक का चेहरा ही बदल डाला और शिखर पर पहुँचे।

सत्यजीत राय की फ़िल्म 'सद्गति' (१९८१) में ओम पुरी और स्मिता पाटील!
उसी वक़्त स्टेज से आए संजीव कुमार ने अपने स्वाभाविक अभिनय से सबको लुभा दिया। कपूर के शशी जी बचपन में ही परदे पर आए थे और रोमैंटिक हीरो से अच्छे फ़िल्मकार तक उनका सफ़र सफ़ल रहा। फिर 'आरके' के रणधीर कुछ ख़ास असरदार नहीं रहे; लेकिन ऋषि जी ने अपना जलवा अच्छा दिखाया! बाद में शशीजी के बेटें भी (विदेशी छवि के चलते) अपने दर्शकों को इतना नहीं भायें!

अभिनेत्रियों में साधना और आशा पारेख बचपन में ही परदेपर आयी और आगे अपना सफ़ल फिल्म कैरियर बना पायी। शर्मिला टैगोर तो रॉयल फैमिली से और बांग्ला सिनेमा में नाम कमाकर यहाँ आयी। तो साउथ सिनेमा से आयी 'ड्रीम गर्ल' बनी हेमा मालिनी, 'ख़ूबसूरत' रेखा और श्रीदेवी इनको फ़िल्मी बैकग्राउंड था। इसमें रेखा को प्रतिकुल परिस्थिती का सामना करते स्ट्रगल करना पड़ा! श्रीदेवी ने भी अपने अभिनय-नृत्य के बलबूते शोहरत हासिल की!

'क्वीन' (२०१३) फ़िल्म में कंगना रनौत!
बाद में समानांतर सिनेमा के दौर में कुछ ऐसे कलाकार यहाँ उभर आएं जो रूढ़ नायक की प्रतिमा से हट कर थे! जैसे की ओम पुरी पुणे के 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट' से एक्टिंग कोर्स करके आए थे और अपनी ज़बरदस्त अभिनय से बड़े असरदार रहे। तो स्मिता पाटील टीवी के छोटे परदे से बड़े सिनेमा तक सिर्फ़ अपने स्वाभाविक अभिनय कुशलता से बड़ी होती गयी। फ़िल्मी माहौल से आयी शबाना आज़मी भी ट्रैंड एक्ट्रेस थी; तो फ़ारुक़ शेख़ 'इप्टा' से थिएटर करके आए थे।..आगे ओफ्फबीट सिनेमा में छा गए राज बब्बर भी 'एनएसडी' से!

परिवार की वजह से कुछ कलाकार इस फ़िल्म इंडस्ट्री में आएं यह बात सच हैं; लेकिन उनमें से जिनके पास वाक़ई में टैलेंट था वहीँ यहाँ टिकें और दर्शकों ने अपनाएं..बाक़ी नकारें गएँ। देव आनंद के पुत्र सुनील आनंद, राजेंद्र कुमार के कुमार ग़ौरव और निर्माता यश चोपड़ा के पुत्र उदय भी कहाँ चलें? ऐसी परिस्थिती में बाहर के कलाकार यहाँ आकर अपना हुनर दिखाकर क़ामयाब हुएं और अपनी मंझिल पर बने रहें। गायक उदित नारायण, सोनू निग़म और कलाकार माधुरी दीक्षित से कंगना रनौत, आयुष्मान ख़ुराना, राजकुमार राव जैसे कितने! हाल ही में गुज़र गए इरफान खान तो इसकी अच्छी मिसाल थे।

अच्छे कलाकार और इंसान..इरफान खान!
अगर नेपोटिज्म और मोनोपोली हैं और अपने फिल्म कैरियर को कुछ ठेंस पहुँचती हैं ऐसा दिखाई देता हैं, तो संबंधित कलाकार ने उससे अच्छी तरह कैसे निपट सकते है यह देखना चाहिए! इसके साथ दबाव तंत्र इस्तेमाल करनेवाले लोगों से दूर रहना चाहिएं।..और इसका ख़याल रखना चाहिए की उनकी वजह से अपने जीवन पर कोई आँच न आएं!

खुदखुशी का सिलसिला अपने फिल्मोद्योग में वैसे फ़िल्मकार गुरुदत्त से लेकर मनमोहन देसाई और कलाकार जिया ख़ान, सुशांत सिंह तक चला आ रहा हैं यह बड़ी दुख की और सोचनीय बात हैं। इसपर मानसशास्त्रिय दृष्टिकोन से कुछ अच्छा हल निकालना चाहिए।..और आगे कोई इस तरह अपनी ज़िंदगी ख़त्म न करें इसपर ध्यान देना चाहिएं!

- मनोज कुलकर्णी

विनोद खन्ना और प्रतिद्वंदी!

अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा के साथ डिनर करते विनोद खन्ना..सुप्रीम कौन!

दिलीप कुमार-देव आनंद-राज कपूर इनके बाद अपने लोकप्रिय भारतीय सिनेमा में जिन तीन समकालिन अभिनेताओं का बोलबाला था वे थे..अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा! हालांकि अमिताभ बच्चन सुपरस्टार थे लेकिन बाकि दोनों भी खुदको इसी पोजीशन पर मानते थे।

'खून पसीना' (१९७७) फ़िल्म में विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन का मुकाबला!
अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना ने लगभग दस फिल्मों में एकसाथ काम किया। इसमें कभी वे यार, बिछड़े भाई थे; तो कभी प्रतिद्वंदी। पहली बार वे सुनील दत्त ने बनायी फ़िल्म 'रेशमा और शेरा' (१९७१) में नज़र आएँ। फिर बॉलीवुड के दो जानेमाने फ़िल्ममेकर्स की फिल्मों में वे प्रमुख भूमिकाओं में साथ आएँ। वे थी प्रकाश मेहरा की 'हेरा फेरी' (१९७६), 'मुकद्दर का सिकंदर' (१९७८) और मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर अन्थोनी', 'परवरिश' (१९७७)..इन सुपरहिट फिल्मों में दोनों ने अपना वजूद बराबर रखा। लेकिन अपनी पॉपुलर 'एंग्री यंग मैन' इमेज और अभिनय में सहजता की वजह से अमिताभ छाये रहें। दरअसल 'मुकद्दर का सिकंदर' का उसका इंटेंस कॅरेक्टर तो वाकई दिलों को छू गया! एक फ़िल्म में विनोद खन्ना उसपर अपने सीरियस इंटेंस कॅरेक्टर से हावी रहे, वो थी राकेश कुमार की 'खून पसीना' (१९७७)..इसमें अमिताभ ने (अपने इमेज से अलग) लाइट कैरेक्टर किया था और कॉमेडी भी!

'मेरे अपने' (१९७१) फ़िल्म में शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना का कड़ा मुकाबला!
जबरदस्त आवाज़ में अपनी खास डायलॉगबाजी से फेमस शत्रुघ्न सिन्हा के साथ पहली बार १९७१ में 'दोस्त और दुश्मन' फ़िल्म में विनोद खन्ना दिखाई दिए! इसी साल गुलज़ार की हिट फ़िल्म 'मेरे अपने' में ये दोनों सही मायने में सामने (खुन्नस से) खड़े हुएँ। फिर फ़िल्म 'दो यार' (१९७२) में ये दोनों रेखा के साथ ट्रैंगल में नज़र आएँ। फिरसे 'प्यार का रिश्ता' (१९७३) इस सुल्तान अहमद की फ़िल्म में वे दोनों मुमताज़ के साथ त्रिकोणीय प्रेम में समाएँ! इसके बाद 'श्याम रल्हन की 'पाँच दुश्मन' (१९७३) इस देमार फ़िल्म में वे थे। वो फ़िल्म दस साल बाद 'दौलत के दुश्मन' (१९८३) नाम से फिरसे रिलीज़ हुई! दरमियान ब्रिज की थ्रिलर 'बॉम्बे ४०५ माइल्स' (१९८०) में दोनों ज़ीनत अमान के साथ अलग अंदाज़ में दिखें। हालांकि, 'मेरे अपने' जैसा उन दोनों का कड़ा मुकाबला फिरसे दिखाई नहीं दिया।

विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा..असल ज़िन्दगी में स्नेह!
सौभाग्य से लीजेंडरी त्रयी दिलीप-देव-राज इनको मैं मिला था। वैसे ही अमिताभ-विनोद-शत्रुघ्न इनको भी मैं मिला। हालांकि, उस लीजेंडरी त्रयी में तीनों अलग इमेज के थे और इन तीनों की इमेज एक ही डैशिंग हीरो की! अमिताभ बच्चन असल में अलग, अपना रुतबा सँभालते गंभीरता से बोलनेवाले तो विनोद खन्ना इंट्रोवर्ट और कुछ ईगो संभाले थे और शत्रुघ्न सिन्हा वास्तव में एकदम नरमदिल और सादगी से बात करनेवाले इंसान हैं!

आज विनोद खन्ना के जनमदिन पर इसपर प्रकाश डाला। वैसे उस पर मैंने यहाँ पहले काफी लिखा हैं।
तो यह एक अलग दृष्टिकोन से याद!!

- मनोज कुलकर्णी

Friday 2 October 2020

शास्त्रीजी का नारा और मनोज कुमार की 'उपकार'!

अपने भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री श्री.लालबहादुर शास्त्री जी की आज ११६ वी जयंती।

सादगी भरे आदरणीय व्यक्तित्व के शास्त्री जी का अपने 'भारत कुमार' अभिनेता-निर्देशक मनोज कुमार जी पर बड़ा प्रभाव था। उन्होंने मुझे मुलाकातों में बताया की 'शहीद' में उनके काम की शास्त्री जी ने प्रशंसा की थी..और कहा था की उनके "जय जवान, जय किसान" नारे पर फ़िल्म निर्माण करे!' और शास्त्री जी के सुझाव का आदर करते हुए उन्होंने फ़िल्म 'उपकार' बनायी।'


१९६७ में बनी फ़िल्म 'उपकार' अभिनेता मनोज कुमार की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म थी, जो उन्होंने खुद लिखी थी। "जय जवान, जय किसान" यह नारा उसके केंद्रस्थानी था ही। उसके साथ ही मुल्क़ के बटवारे का एक रूपक भी उन्होंने इसमें दिखाया, जिसमें दूसरे भाई पूरन की वजह से भारत को अपने ज़मीन का बटवारा करना पड़ता हैं! इस फ़िल्म के लिए मनोज कुमारजी को बहोत सम्मान मिलें।

१९६६ में ही शास्त्री जी का निधन हो गया था और फ़िल्म 'उपकार' उसके बाद प्रदर्शित हुई।
लेकिन यह दुर्लभ तस्वीर मनोज कुमार की (भगत सिंह की अमर भूमिका की) 'शहीद' के शास्त्री जी के लिए रखें ख़ास शो की हैं! इसमें शास्त्री जी उस फ़िल्म से संबंधित कलाकारों के साथ नज़र आ रहें हैं।

'भारतरत्न' शास्त्री जी को विनम्र प्रणाम!!

- मनोज कुलकर्णी