Monday 28 September 2020


"दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन.."

संगीत की दुनिया के दो 'कोहीनूर'!

लता मंगेशकर जी को मोहम्मद रफ़ी जी मुबारक़बाद देते हुए।

दोनों मेरे अज़ीज़..स्वरसम्राज्ञी से मेरी मुलाकात यादगार रही; लेकिन शहंशाह-ए-तरन्नुम को वे इस दुनिया से जल्द रुख़सत होने के कारन मिल न सका!

सादर प्रणाम!!

- मनोज कुलकर्णी

'मत्स्यगंधा' लुप्त हुई!


रंगमंच और सिनेमा की दिग्गज अभिनेत्री आशालता वाबगांवकर जी की निधन की ख़बर सुनकर दुख हुआ!

'दी गोवा हिन्दू असोसिएशन' से प्रस्तुत नाटकों से उनका अभिनय प्रवास शुरू हुआ था। बाद में 'मत्स्यगंधा' से बतौर गायिका-अभिनेत्री वो मशहूर हुई। फिर रंगमंच पर वो कई साल छायी रही!

हिंदी सिनेमा में बासु चैटर्जी की फ़िल्म 'अपने पराये' (१९८०) में उनके काम की प्रशंसा हुई जो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास 'निष्कृति' पर आधारित थी। बाद में मराठी 'सुत्रधार', 'उंबरठा' (१९८२) और हिंदी 'आहिस्ता आहिस्ता' (१९८१), 'अंकुश' (१९८६) में भी उनकी भूमिकाएं उल्लेखनीय रहीं।

'अपने पराये' (१९८०) में भारती आचरेकर और आशालता वाबगांवकर

मराठी और हिंदी दोनों भाषाओँ के कलाक्षेत्र में वो निरंतर कार्यरत थी। उन्होंने सौ से भी अधिक फ़िल्मों में काम किया।

उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी

Wednesday 23 September 2020


"आज हिमालय की चोटी से फिर हम ने ललकरा है s
दूर हटो ऐ दुनिया वालों s..हिन्दोस्ताँ हमारा है.."

१९४३ में निर्मित 'क़िस्मत' इस 'बॉम्बे टॉकीज' की फ़िल्म का यह तब मशहूर हुआ गीत!

१९४२ के 'ब्रिटिशों भारत छोडो' आंदोलन के अगले साल ही बनी इस फ़िल्म ने स्वातंत्र्य पूर्व काल में इस नारे से बड़ा योगदान दिया।

इसी के साथ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बनी इस फ़िल्म में जर्मनों के विरुद्ध भी नारा था!

कवि प्रदीप जी!

देशभक्ति पर गीत लिखनेवाले कवि प्रदीप जी की यह रचना अनिल बिस्वास जी के संगीत में अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना ने बड़े जोश से गायी थी। इसमें मुमताज़ शांति, शाह नवाज़ और बाकी कलाकारों ने अपना अच्छा प्रदर्शन दिखाया!

इस गीत की प्रस्तुति आकर्षक तथा अर्थपूर्ण थी जिसमे अखंड भारत का नक्शा दिखाया हैं।

उर्दू लेखक अगाजानी कश्मीरी ने यह फ़िल्म लिखी जिसे ग्यान मुख़र्जी ने निर्देशित किया।

यह पहली ब्लॉक बस्टर फ़िल्म थी जिसमें पहली बार 'लॉस्ट एंड फाउंड' फॉर्मूला इस्तेमाल हुआ। तथा अशोक कुमार के ज़रिये इसमें एंटी-हीरो पहली बार दिखायी दिया।

'क़िस्मत' (१९४३) में अशोक कुमार और मुमताज़ शांति!

लेकिन यह फिल्म सिर्फ उस जोशभरे गाने से या नारे से याद आती हैं!

अब इस गीत को आज की राजनीति की दृष्टी से कुछ लोगों ने अलग रंग में ढाला हैं वह ठीक नहीं!

- मनोज कुलकर्णी

Tuesday 22 September 2020

"ये सिलसिले हुएं.."

'सिलसिला' (१९८०) फिल्म में रेखा, अमिताभ बच्चन और जया बच्चन!

सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और ख़ूबसूरत रेखा की जोड़ी परदेपर हिट थी ही..और उसके आगे भी उनकी नज़दीकियाँ बढ़ी! १९८० के दौरान इसकी भनक जैसे अपने 'किंग ऑफ़ रोमांस' यश चोपड़ा को लगी तो उन्होंने यह 'सिलसिला' परदे पर लाया।..और उसमे अमिताभ-रेखा के सामने जया बच्चन को खड़ा करके असल ट्रायंगल दिखाया। उनके सीन्स देखना रोमांचकारी रहा!

जया बच्चन और रेखा के बीच आशा भोसले!
बहरहाल, प्रोफेशनल अमिताभ ने वक्त पर खुद को संभाला और अपने फिल्म कैरियर पर कॉन्सेंट्रेटे किया। लेकिन रेखा पर प्यार का असर बरक़रार रहा!

ख़ैर, इसके बाद जब भी किसी फंक्शन में अमिताभ बच्चन और जया जी जाते और वहां रेखा भी आती तो माहौल संवेदनशील हो जाता। जैसे इसकी एक तस्वीर में देखेंगे जया जी और रेखा एक प्रोग्राम में सामने आयीं तो बीच में गायिका आशा भोसले के भाव कैसे हुए! 

अमिताभ बच्चन जी और जया बच्चन जी के बीच में रेखा जी!

और एक बार ऐसी फ्रेम फोटोग्राफर्स ने बख़ूबी पकड़ ली जिसमे अमिताभजी और रेखाजी के बीच जयाजी खड़ी नज़र आयी!

'सिलसिला' फ़िल्म १४ अगस्त को रिलीज़ हुई थी, जिसे अब ४० साल होने को आएं! इसीलिए यह याद आया!

- मनोज कुलकर्णी

वो 'जुगनू' यही चमका!

हुस्न और आवाज़ की मलिका नूरजहाँ!

'अनमोल घड़ी' (१९४६) के गाने में नूरजहाँ
"जवाँ है मोहब्बत, हसीं है ज़माना.."

'अनमोल घड़ी' (१९४६) में ऐसा रूमानी गाकर परदे पर खिलखिलाती नूरजहाँ तब यहाँ उस मक़ाम पर थी। 

लेकिन एक साल में वह घड़ी उससे जुदा हो गई!

१९४७ में हमारे मुल्क़ को आज़ादी मिली और उसके साथ बटवारे का सदमा भी!
और यह
'मलिका-ए-तरन्नुम' सरहद के उस पार चली गयी।

'जुगनू' (१९४७) के पोस्टर पर नूरजहाँ-दिलीपकुमार!

उसी साल यहाँ प्रदर्शित हुई थी फ़िल्म 'जुगनू'..जिसमें अदाकारी के शहंशाह यूसुफ़ ख़ान याने दिलीपकुमार की नायिका हुई नूरजहाँ! इसे निर्देशित किया था उसके शोहर शौकत हुसैन रिज़वी ने! वह एक सोशल रोमैंटिक थी, जिसमे अमीरी-ग़रीबी के बीच उलझती मोहब्बत को दर्शाया गया था। ए. एस. उस्मानी की कहानी पर खादिम मोहीउद्दीन ने इसकी पटकथा लिखी थी।

उस 'जुगनू' की ख़ास बात यह भी थी की, उसमें संगीत की दुनिया की और दो जानीमानी हस्तियाँ परदे पर दिखाई दी। उसमें एक थे ग़ुलाम मोहम्मद और दूसरे मोहम्मद रफ़ी! अपनी दर्दभरी मीठी आवाज़ में..

"वो अपनी याद दिलाने को.."

'जुगनू' (१९४७) में गाते मोहम्मद रफ़ी!
यह गाना गाते रफ़ी इसमें दिखाई दिए।

उस ज़माने के जानेमाने नग़्मा-निगार अदीब सहारनपुरी और असग़र सरहदी ने इस फिल्म के गाने लिखें थे और फ़िरोज़ निज़ामी ने वे संगीतबद्ध किए थे। इसमे मोहम्मद रफ़ी ने अपना शुरूआती डुएट नूरजहाँ के साथ गाया "यहाँ बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या हैं.." जो ख़ुद नूरजहाँ और दिलीपकुमार ने परदे पर संजीदगी से साकार किया

'जुगनू' (१९४७) के रूमानी दृश्य में नूरजहाँ और दिलीपकुमार!
यह फिल्म बहोत हिट हुई और इसके गाने भी मशहूर हुए। इसके बाद दिलीपकुमार यहाँ बड़े स्टार हुए।..लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद नूरजहाँ और मियाँ शौकत हुसैन रिज़वी पाकिस्तान चलें गए।

१९८२ के दरमियान अपने भारत में नूरजहाँ तशरीफ़ लायी थी। तब उसके सम्मान में अपनी फिल्म इंडस्ट्री ने शानदार समारोह आयोजित किया था। उसमें दिलीप कुमार के सामने वो खुलकर गायी। शायद 'जुगनू' के "उमंगें दिल की मचली, मुस्कुराई ज़िंदगी अपनी.." गाने की तरह ही उसके जज़्बात थे!

नूरजहाँ अपने शोहर शौकत हुसैन रिज़वी के साथ!
कल नूरजहाँ के ९४ वे जनमदिन पर यह याद आया।

उन्हें सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी

Monday 21 September 2020

एक्सक्लुजिव्ह!

शबाना-स्मिता..असरदार बराबर मुक़ाबला!!

'अर्थ' (१९८२) फ़िल्म के आव्हानात्मक प्रसंग में शबाना आज़मी और स्मिता पाटील!

शबाना आज़मी और स्मिता पाटील अपने भारतीय सिनेमा के परदे पर स्त्री व्यक्तिरेखाओं को यथार्थता से साकार करनेवाली अभिनेत्रियाँ! दोनों में उम्र का पाँच साल का फ़ासला; लेकिन सशक्त अभिनय में दोनों बराबर की असरदार।

दोनों परदेपर सामने आती तो कड़ा मुक़ाबला देखने को मिलता था। सबसे पहले उन्होंने एकसाथ समानांतर सिनेमा के विख्यात निर्देशक श्याम बेनेगल की फ़िल्म 'निशांत' (१९७५) में काम किया। इसमें गाँव के बड़े घर की पति को संभालनेवाली सीधीसादी बहु बनी थी स्मिता और शहर से आए स्कूल टीचर की आब संभलकर रहनेवाली पत्नी बनी थी शबाना। पुरुषों की हुक़ूमत, बुरी नज़र ऐसे में पीसती स्त्री व्यक्तिरेखाएँ ही थी उनकी!

'मंडी' (१९८३) फ़िल्म में शबाना आज़मी और स्मिता पाटील!

इसके बाद इन दोनों अभिनेत्रियों ने समानातंर सिनेमा का रास्ता ही चुना। फिर सईद मिर्ज़ा की सटायर 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता हैं' (१९८०) में दोनों अलग अंदाज़ में साथ आयी। इसके बाद महेश भट्ट की फ़िल्म 'अर्थ' (१९८२) में दोनों का सही मायने में मुक़ाबला देखने को मिला। इसमें असुरक्षित महसूस करनेवाली बीवी की भूमिका में शबाना थी, तो उसके पति से रिश्ता रखनेवाली की भूमिका में स्मिता थी। लेकिन जब दोनों सामने आती हैं तब (हक़ के लिए) स्त्री शक्ति का अनोखा सीन दिखाई देता हैं!

हालांकि फिल्मकारों को इन दोनों के साथवाले सीन्स फ़िल्माने में जद्दोजहद करनी पड़ती थी। इसकी जानकारी विख्यात निर्देशक श्याम बेनेगल ने एक मंच पर बोलते हुए दी थी। उनकी 'मंडी' (१९८३) फ़िल्म के निर्माण के दौरान उनको इसके लिए काफ़ी प्रयास करने पड़े थे ऐसा उन्होंने बताया!

'उँच नीच बीच' (१९८९) इस वसी ख़ान की सत्य घटना पर आधारित फ़िल्म में आखरी बार ये दोनों साथ आयी। स्मिता जी गुज़र जाने के बाद यह प्रदर्शित हुई!

'कांन्स फ़िल्म फेस्टिवल' में श्याम बेनेगल, शबाना आज़मी और स्मिता पाटील!

मैं दोनों को मिला हूँ। स्मिता जी बहोत सरल, स्वाभाविक और तुरंत व्यक्त होनेवाली इमोशनल थी; तो शबाना जी अंतर्मुख और सोच कर अदब से व्यक्त होनेवाली कुछ प्रैक्टिकल हैं।

हाल ही में शबाना जी का ७० वा जनमदिन हुआ और स्मिता जी आज होती तो ६५ साल की होती।

ग़ौरतलब है की, आज जब भी स्मिता जी की बात किसी संगोष्ठी में निकलती हैं तो शबाना जी भावुक होकर उसके सम्मान में बोलती हैं!

- मनोज कुलकर्णी

 

मुशायरे को चार-चाँद लगानेवाले शायर!

शायर ख़ुमार बाराबंकवी.

"आँखों के चरागों में उजाले न रहेंगे..
आ जाओ के फिर देखनेवाले न रहेंगे"

ऐसा रूमानी लिखने वाले पसंदीदा शायरों में से एक ख़ुमार बाराबंकवी का जन्मशताब्दी साल हाल ही में हुआ।

'बारादरी' (१९५५) फ़िल्म में में गीता बाली और अजित!
उनका असल में नाम था मोहम्मद हैदर ख़ान जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी से ताल्लुक रखते थे। तरन्नुम में शायरी पढ़ने का जिगर मुरादाबादी का अंदाज़ और अपनी सादगी से वे मुशायरों की जान हुआ करते थे!

शायराना माहौल में बड़े हुए उन्होंने जवानी की देहलीज पर शायरी करना शुरू किया था और शोहरत हासिल की थी। १९४५ के दौरान फ़िल्मकार ए. आर. कारदार और संगीतकार नौशाद ने उन्हें मुशायरे में सुना और उनकी 'शाहजहां' फिल्म का नग़्मा उनसे लिखवाया "चाह बर्बाद करेगी हमें मालुम था.." जो सैगल जी ने गाया। फिर १९४९ में उन्होंने 'रूप लेखा' फ़िल्म के लिए लिखा "तुम हो जाओ हमारे.. " जो सज्जाद हुसैन के संगीत में मोहम्मद रफ़ी और सुरिंदर कौर ने गाया।

के. आसिफ की फ़िल्म 'लव एंड गॉड' (१९८६) में निम्मी और संजीव कुमार!
१९५१ में लता मंगेशकर ने 'हलचल' फ़िल्म के लिए उनका लिखा "लूट लिया मेरा क़रार.." गाया जो नर्गिस पर फ़िल्माया गया। देखते-देखते ख़ुमार जी बतौर गीतकार भी कामयाब हुए। १९५५ में तो (शौक़त) नाशाद के संगीत में उन्होंने लिखें 'बारादरी' फ़िल्म के सभी गानें हिट हुए जैसे की "भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना.. " और "तस्वीर बनता हूँ.. "

वैसे आगे खुमार जी के गाने मशहूर होतें रहें जैसे की "एक दिल और तलबगार है बहुत..", "दिल की महफ़िल सजी है चले आइए..", "साज हो तुम आवाज़ हूँ मैं.." और फ़िल्म 'जवाब' से के. आसिफ की 'लव एंड गॉड' तक! लेकिन फ़िल्म संगीत का माहौल उन्हें रास नहीं आया। वे मुशायरा के शायर थे और क्लासिक ग़ज़ल के तरफ़दार रहें। उनकी गज़लें मेहदी हसन, ग़ुलाम अली और जगजित सिंह जैसों ने गायी है।

मुशायरा के शायर ख़ुमार बाराबंकवी!

खुमार जी की शायरी 'शब-ए-ताब' और 'आतिश-ए-तर' ऐसी किताबों में प्रसिद्ध हुई। साहिर की 'परछाइयाँ' की तरह ये भी संगीत से न सजी। शायरों की कलम की यही परेशानी रही!

उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने सम्मानित किया और यहाँ काफी अवार्ड्स मिले। तथा पाकिस्तान में भी वे सम्मानित हुए! दुबई में और यहाँ उनके सम्मान में 'जश्न-ए-ख़ुमार' जैसे जलसे भी आयोजित हुए।

उनकी "हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए" ग़ज़ल उन्हीकी आवाज़ में सुनने की बात ही कुछ और हैं!

उन्हें यह सुमनांजलि!!

- मनोज कुलकर्णी

 

Thursday 3 September 2020

'मोरों को नचाया..सरकार ने'!

मोर आज कल चर्चा में हैं..तो उसपर मुझे याद आया..

शेखर कपूर की 'मासूम' (१९८२) से पहले बनी फ़िल्म 'मासूम' (१९६०) का यह गाना..
"नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए."

शैलेन्द्र जी ने वह लिखा था और रोबिन बैनर्जी के संगीत में तोतली ज़ुबान में रानू मुख़र्जी ने गाया था।

सत्येन बोस ने बनायीं उस फ़िल्म में मेरे खयाल से सरोश या हनी ईरानी ने वह बड़े प्यारे ढंग से परदे पर साकार किया था!

हमारे बचपन में यह गाना बहुत बजता था।

उसकी बीच की पंक्तियाँ थी..
"मोरों को भी खूब नचाया..जंगल की सरकार ने.."

आज के परिदृश्य में यह देखा/कहा जा सकता हैं!

- मनोज कुलकर्णी

 


"एक प्यार का नग़मा है.."

नाम की तरह ही जो है वह दिग्गज संगीतकार (लक्ष्मी-प्यारे में से) प्यारेलाल शर्मा जी को उनकी ८० वी सालगिरह पर मुबारक़बाद!

- मनोज कुलकर्णी

 

Wednesday 2 September 2020

"ऐ हुस्न ज़रा जाग..
तुझे इश्क़ जगाये.."
लिखनेवाले शकिल बदायुनीजी की 'महबूब'

"ऐ फूलों की रानी..
बहारों की मलिका.."
लिखनेवाले हसरत जयपुरीजी की 'आरजू'

ऐसी जिनकी ख़ूबसूरती पर शायरों की क़लम निछावर हुई वह..साधना जी को जनमदिन पर सुमनांजलि!

- मनोज कुलकर्णी