इन्सानियत ही वृद्धिंगत हो!
मैं धार्मिक नहीं, लेकिन मुझे अपने सिनेमा के दृश्यों में जब मंदिरों, गिरिजाघरों की घंटियाँ और मस्ज़िदों की अज़ान..यह जब मधुरता से सुनाई देता हैं तब अपनी अनोखी गंगा-जमुनी संस्कृति पर नाज़ होता है।
'धुल का फूल' (१९५९) के "इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा.." गाने में छोटे बच्चे के साथ मनमोहन कृष्ण जी! |
साहिर लुधियानवी ने जैसे फ़िल्म 'मुझे जीने दो' (१९५७) के गीत में कहाँ हैं..
"आज गौतम की ज़मीं,
तुलसी का बन आज़ाद है
मंदिरों में शंख बाजे,
मस्जिदों में हो अज़ान..
शेख का धर्म और
दीन-ए-बरहमन आज़ाद है"
सामाजिक सलोखा रखनेवाले अपने सिनेमा के कुछ दृश्यं तथा क़िरदार भी मेरे स्मृति पटल पर निरंतर रहतें हैं।
अपने जानेमाने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की पहली फ़िल्म 'धुल का फूल' (१९५९) में.. मनमोहन कृष्ण ने साकार किए अब्दुलचाचा लावारिस बच्चे को गोद लेकर उसकी अच्छी परवरिश करके उसके साथ खेलते सुनातें हैं..
"तू हिन्दु बनेगा न मुसलमान बनेगा..
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा.."
..रफ़ीजी ने दिल से गाया साहिर जी का ही यह गीत।
ऐसे ही दुलाल गुहा की फ़िल्म 'दोस्त' (१९७४) में अभी - भट्टाचार्य जी ने साकार किए फादर फ्रांसिस..जो अनाथ बच्चे को "मानव' नाम देकर अच्छे विचारों से बड़ा करते हैं।
अभी के हालातों के मद्देनज़र..अपने सिनेमा, कला, साहित्य से ऐसे संस्कार होते रहें!
- मनोज कुलकर्णी
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