ये तीन फ़िल्में छोड़ने का मलाल था उन्हे!
अपने भारतीय सिनेमा के एक दिग्गज फ़िल्मकार विजय भट्ट जी का परसों जनमदिन था। तब उनकी अभिजात सांगीतिक चित्रकृति 'बैजू बावरा' (१९५२) याद आयी! 'फ़िल्मफ़ेअर' का पहला 'सर्वोत्कृष्ट - अभिनेत्री' का पुरस्कार इसके लिए मीना कुमारी ने जीता था।
इस फ़िल्म के नायक के लिए भट्ट साहब की पहली पसंद थी दिलीपकुमार! लेकिन वह बात बन नहीं पायी..बाद में भारत भूषण इसमें आए और छा गए! नौशाद जी का संगीत और.. मोहम्मद रफ़ी-लता मंगेशकर नें गाएं "तू गंगा की मौज, मै जमुना का धारा.." जैसे इसके सुरीले गीत दिल को छू गएँ!
ऐसी ही बात नहीं बन पायी थी गुरुदत्त जी की अभिजात फ़िल्म 'प्यासा' (१९५७) के वक़्त! (इसके बारे में मैंने अलग यहाँ लिखा था) वे चाहते थे दिलीपकुमार यह कवि की संवेदनशील भूमिका करे..
लेकिन इससे पहले बिमल रॉय की फ़िल्म 'देवदास' (१९५५) में ऐसा ही शोकाकुल क़िरदार वे अदा कर चुके थे! ('ऐसी ट्रैजडी फिरसे मै नहीं करना चाहता था' इसका ज़िक्र यूसुफ़साहब ने मेरे पास भी एक मुलाक़ात में किया था!)
बाद में गुरुदत्त जी ने ख़ुद वह भूमिका अपनी जान डालकर यादगार निभायी। इसमें रफ़ी जी की आवाज़ में "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.." यह दिल को चिरनेवाली मनोवस्था लेकर परदे पर आयी उनकी ऊंची प्रतिमा अपने सिनेमा का एक मानदंड हो गई! मेरी तो यह सबसे पसंदीदा फ़िल्म!
'जंजीर' (१९७३) में अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, प्राण, बिंदु और अजित! |
हालांकि इससे पहले अपनी 'गंगा - जमुना' और 'नया दौर' जैसी फ़िल्मों में ज़ुल्म और अन्याय के विरुद्ध खड़े रहनेवाले संतप्त नायक को दिलीप कुमारजी ने ही परदे पर लाया था!
दिलीपकुमार जी को ऊपर के तीनों - रोल्स एक ही डायमेंशन से जाते नज़र आएं ऐसा कहा गया! इस सिलसिले में सलीमसाहब ने ऐसा भी कहा है की,'यूसुफ़साहब को अपनी मेथड एक्टिंग के लिए जहाँ ज्यादा स्कोप हो वही वे करते थे! फिर भी 'बैजू बावरा', 'प्यासा' और 'जंजीर' ये तीन फ़िल्में छोड़ने का मलाल उन्होंने मुझसे जाहिर किया!"
ऐसे अपने अभिनय सम्राट!!
- मनोज कुलकर्णी
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