अज़ीम शायर मीर तक़ी मीर!
"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'..
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था!"
शायर-ए-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब जी ने ऐसा जिनका ज़िक्र किया था वे उर्दू तथा फ़ारसी के अज़ीम शायर थे मीर तक़ी मीर! इस वर्ष उनका ३०० वा जन्मदिन मनाया जा रहा हैं!
१७२३ के दौरान आगरा (तब अकबराबाद) में जन्मे थे यह मीर मोहम्मद तक़ी! जीवन का तत्वज्ञान दिए पिता गुजर जाने के बाद, पढाई पूरी करने के लिए वे दिल्ली आए। कुछ समय उन्हें (बादशाह की तरफ़ से) छात्रवृत्ति मिली। दरमियान अमरोहा के सैयद सआदत अली ने उन्हें उर्दू में शेरोशायरी लिखने-कहने के लिए प्रोत्साहित किया।
उस समय शाही दरबारों में फ़ारसी शायरी को अहमियत दी जाती थी! फिर मीर तक़ी मीर उर्दू ग़ज़ल के दिल्ली स्कूल के प्रमुख शायर हुए। उनके दो मसनवी याने 'मुआमलात-ए-इश्क' और 'ख़्वाब-ओ-ख़याल-ए मीर' ये उनके अपने प्रेम से प्रेरित थें!
बहरहाल, बार बार परकीयों से हुएं आक्रमणों ने हुई दिल्ली की बदहाली भी उन्हें दुखी कर जाती। तभी से ज़िंदगी की तरफ़ का उनका नज़रिया उनके शेरों में झलकने लगा था! बाद में वे लखनऊ चले गए..आसफ़ुद्दौला के दरबार में! फिर अपने जीवन के बाकी दिन उन्होंने लखनऊ में ही गुजारे।
मीर साहब का पूरा लेखन 'कुल्लियात' में ६ दीवान हैं, जिनमें विविध प्रकार की काव्य रचनाएं शामिल हैं। इनमे प्यार के जज़्बे के साथ करुण रस भी हैं!
एक तरफ़ वे ऐसा रूमानी लिखतें हैं..
"था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था!"
तो दूसरी तरफ़ ऐसा यथार्थ..
"हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है!"
मीर साहब की शायरी को फ़िल्मों के लिए भी इस्तेमाल किया गया हैं, जैसे की..
"पत्ता पत्ता बूटा बूटा
हाल हमारा जाने है..
जाने न जाने गुल ही न जाने,
बाग़ तो सारा जाने है.."
और,
"दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले"
अपने ख़ूबसूरत अंदाज़-ए-बयाँ पर वे लिखतें हैं..
बहरहाल, बार बार परकीयों से हुएं आक्रमणों ने हुई दिल्ली की बदहाली भी उन्हें दुखी कर जाती। तभी से ज़िंदगी की तरफ़ का उनका नज़रिया उनके शेरों में झलकने लगा था! बाद में वे लखनऊ चले गए..आसफ़ुद्दौला के दरबार में! फिर अपने जीवन के बाकी दिन उन्होंने लखनऊ में ही गुजारे।
मीर साहब का पूरा लेखन 'कुल्लियात' में ६ दीवान हैं, जिनमें विविध प्रकार की काव्य रचनाएं शामिल हैं। इनमे प्यार के जज़्बे के साथ करुण रस भी हैं!
एक तरफ़ वे ऐसा रूमानी लिखतें हैं..
"था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था!"
तो दूसरी तरफ़ ऐसा यथार्थ..
"हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है!"
मीर साहब की शायरी को फ़िल्मों के लिए भी इस्तेमाल किया गया हैं, जैसे की..
"पत्ता पत्ता बूटा बूटा
हाल हमारा जाने है..
जाने न जाने गुल ही न जाने,
बाग़ तो सारा जाने है.."
और,
"दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले"
अपने ख़ूबसूरत अंदाज़-ए-बयाँ पर वे लिखतें हैं..
बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का!
"पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ!"
ऐसा उनका कहना महसूस भी कर रहें हैं!!
मीर साहब को मेरा सलाम!!!
- मनोज कुलकर्णी
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का!
"पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ!"
ऐसा उनका कहना महसूस भी कर रहें हैं!!
मीर साहब को मेरा सलाम!!!
- मनोज कुलकर्णी
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