वह नज़ाकत से इज़हार-ए-इश्क़!
"भूल सकती नहीं आँखे वो सुहाना मंज़र
जब तेरा हुस्न मेरे इश्क़ से टकराया था
और फिर राह में बिखरे थे हज़ारो नग्मे..."
'अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के शायराना माहौल में शेरवानी पहने महबूब की बुर्का-हिजाब में आती माशूका से पहली मुलाक़ात को चित्रित करता यह रूमानी दृश्य!
एच. एस. रवैल जी की मेरी पसंदीदा क्लासिक फ़िल्म 'मेरे मेहबूब' (१९६३) में जुबिली स्टार राजेंद्र कुमार और ख़ूबसूरत साधना ने उसी नज़ाक़त से साकार किया था..जिसमें शकील बदायुनी की उस रूमानी शायरी को नौशाद जी के संगीत में मोहम्मद रफ़ी जी ने उसी प्यार भरे अंदाज़ में पेश किया था।
'मेहबूब की मेहँदी' (१९७१) के "ये जो चिलमन हैं.." गीत में लीना चंदावरकर और राजेश खन्ना! |
रवैल जी की फ़िल्मों के अलावा और भी कुछ मुस्लिम सोशलस में इस तरह से नज़ाक़त से शायराना इश्क़ बयां हुआ। (इस विषय पर मेरे लेखों की एक मालिका यहाँ साल पहले आयी थी।)
'मेरे हुज़ूर' (१९६८) के "रुख़ से ज़रा नक़ाब उठा दो.." गीत में ख़ूबसूरत माला सिन्हा! |
जैसे की (मैंने पहले जिसपर लिखा है वह अभिनय और संगीत के सब दिग्गजों की) 'कोहिनूर' (१९६०) फ़िल्म का "दो सितारों का ज़मीन पर है मिलन.." गीत-दृश्य! शकील बदायुनी जी ने ही लिखे इस को नौशाद जी के संगीत में मोहम्मद रफ़ी जी और लता मंगेशकर जी ने उसी तरलता से गाया हैं। इसमें अपने अदाकारी के शहंशाह यूसुफ़साहब..दिलीपकुमार जी और अपनी अदाकारी की मलिका महज़बीन..मीना कुमारी जी को कहतें हैं "तोड़ दे तोड़ दे परदे का चलन आज की रात.. मुस्कुराता है उम्मीदों का चमन आज की रात.."
फिर रवैल जी की ही फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' (१९८२) में ऋषि कपूर और टीना मुनीम का साहिर लुधियानवी जी के गीत में बयां होना "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता.."
रूमानी मुस्लिम सोशलस की वह नफ़ासत..और नज़ाकत में इश्क़ का इज़हार करने का अंदाज़ हम जैसे शायराना रूमानी रहे शख़्स को हमेशा लुभाता रहां हैं!
- मनोज कुलकर्णी
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